क्या विशेष है अद्भुत रामायण, कृतिवास रामायण, और विचित्र रामायण में


इस लेख भाग २ में किन रामायण ग्रंथों के बारे में चर्चा है
- भाग १ में बहुत प्राचीन भुशुण्डि रामायण और अध्यात्म रामायण पर संक्षिप्त में बताया गया था, वर्तमान भाग २ में हम अद्भुत रामायण और कृतिवास रामायण के बारे में जानेंगे ।
- ये दोनों ही रामायण आसानी से online उपलब्ध हैं। हिंदी में पूरा ग्रन्थ का pdf भी online free में उपलब्ध हैं
- इन तीनो रामायणों में जो विशेष, रोचक, उपयोगी और ज्ञानवर्धक बातें हैं, अनसुनी कथाएं हैं, भाग २ में उन्हीं की चर्चा है ।

- कृतिवास रामायण का रचना काल रामचरितमानस के रचना काल से भी लगभग १०० वर्ष पहले का माना जाता हैं । कृतिवास रामायण के रचयिता बांगला भाषा के महान कवि संत कृतिवास (श्री कृतिवास ओझा ) हैं ।
- संत कृतिवास भगवान् राम के परम भक्त थे और छंद, व्याकरण, ज्योतिष, धर्म और नीतिशास्त्र के प्रकांड पंडित थे
कृतिवास रामायण की कुछ प्रमुख विशेषतायें
- यह रामायण सरल बंगाली भाषा में लिखी गयी है, इसमें राम जी का दुर्गा पूजन करना आदि स्थानीय बंगाली परम्पराओं, त्योहारों और श्रद्धा-विश्वास को ध्यान रखा गया हैं इसी कारण से कृतिवास रामायण बहुत प्रचलित और प्रसिद्द हुई ।
- लक्ष्मण जी की पत्नी उर्मिला जी का बलिदान की अनसुनी कथा का विस्तृत वर्णन हैं । लक्ष्मण जी के चमत्कारी बलिदान की पूरी कथा हैं उन्होंने १४ वर्ष तक बिना सोये और निराहार रहकर राम जी की सेवा की, और इसी कठोर तपस्या के कारण, वे इंद्रजीत का वध कर पाए ।
- रावण का वध हेतु एक बाण था जो ब्रह्मा जी ने उसे दिया था यह कहकर की तुम्हारी की मृत्यु सिर्फ उस बाण से ही होगी , यह बाण हनुमान जी मंदोदरी से बहला कर चतुराई से लेकर आये, यह अद्भुत प्रसंग भी हैं कृतिवास रामायण में ।
- राम जी के आयोध्या लौटने के बाद माता कैकई से संभाषण भी कृतिवास रामायण में अलग तरह का बहुत ही भावुक करने वाला वार्तालाप है जिसमें ऐसा स्पष्ट होता है की माता कैकई का कोई दोष नहीं था। राम जी की ही माया से और उनके ही संकल्प से यह हुआ था।
कृतिवास रामायण की कुछ अनसुनी कथाएं
लक्ष्मण जी ने १४ वर्ष तक बिना सोये और निराहार रहकर राम जी की सेवा की इसलिए ही वे इंद्रजीत का वध कर पाए । और उनकी पत्नी उर्मिला जी का बलिदान ।
लंका विजय के बाद रामराज्य के समय एक बार दरबार में अगत्स्य मुनि के साथ वार्तालाप चल रहा था, अगस्त्य जी के पूछने पर जब रामजी बता रहे थे की कैसे किसका वध किया तब अगस्त्य जी ने कहा – राम मै तुमसे निवेदन करता हूँ। इंद्रजीत लंका में सबसे बड़ा वीर था। वह इंद्र को बाँध कर लंका में ले आया था, तब ब्रह्मा जी के अनुरोध पर इंद्र को छोड़ा था। इंद्रजीत बादलों की ओट में रहकर अंतरिक्ष में युद्ध करता था। उसके जैसा बाण चलाने में निपुण कोई न था । लक्ष्मण ने उसका वध किया तो लक्षमण सामान वीर त्रिभुवन में और कोई नहीं है ।
इस पर राम जी ने उनसे पूछा की रावण और कुम्भकरण जैसे दुर्जेय जिनको जीतना देवता और गंधर्वों के लिए भी कठिन था ऐसे रावण और कुम्भकरण की अपेक्षा आप इंद्रजीत को बड़ा योद्धा क्यों बता रहे हैं। तब अगस्त्य जी ने कहा – इंद्रजीत का वध केवल वही व्यक्ति कर सकता था जो १४ वर्ष सोया न हो , निराहार रहा हो और जिसने स्त्री मुख न देखा हो।
राम जी ने तब आश्चर्य से कहा की ऐसा कैसे संभव है। लक्ष्मण भाई हमारे साथ १४ वर्ष रहा रोज ही फल आदि देते थे अलग कुटिया में वह रहे हैं तो क्यों निद्रा नहीं ली? और इतने समय साथ रहे तब भी सीता जी का मुख कैसे नहीं देखा? इस बात पर कैसे विश्वास करें ? तब अगस्त्य मुनि बोले की लक्ष्मण को बुला कर उनसे ही पुँछे ।
लक्ष्मण जी आये तब रामजी ने पूंछा, हम तीनो वन में १४ वर्ष साथ रहे, लक्ष्मण तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा? तुम जो फल लेकर आते थे उनको हमे देकर क्या तुम निराहार ही रहते थे ? वन में तुम दूसरी कुटिया में रहते १४ वर्ष तुम कैसे निद्रित नहीं हुए ?
लक्ष्मण जी ने कहा, राजीव लोचन सुनिए –
-रावण के सीता हरण के बाद जब हम दोनों वन में रोते रोते भ्रमण करते थे उस समय ऋष्यमूक पर्वत पर जब सीता जी के आभूषण मिलने पर आपने पूंछा था लक्ष्मण क्या ये सीता के आभूषण हैं देखो .. . तब हे प्रभु मै चरणों के नूपुर के सिवाय कोई भी आभूषण नहीं पहचान पाया , हम तीनो साथ रहे पर माता सीता के सिर्फ श्री चरणों के ही दर्शन किये मैंने।
– आप और सीता जी जब कुटिया में रहते तब मै हाथ में धनुष बाण लिए बहार रखवाली करता था, निद्रा आने पर मैंने निद्रा को एक बन से बेध दिया । मैंने कहा निद्रा देवी १४ वर्ष तुम मेरे समीप नहीं आना जब राम जी अयोध्या के राजा हो सिंघासन पर आरूढ़ होंगे , माता जानकी बाएं आसीन होंगी और मै छत्रदण्ड ले दाहिने खड़ा होऊं, हे निद्रा तुम उस समय मेरे नयनों में आना । ऐसा ही हुआ जब आप सिंघासन पर आरूढ़ हुए तब मेरे हाथ से छत्र गिर पड़ा था , निद्रा आने के कारण।
मै १४ वर्ष निराहार रहा हूँ, जो फल मै लेकर आता था आप उसके तीन भाग करते थे और मुझसे कहते थे ये अपने पास रख लो , अपना भाग मै कुटिया में लाकर रख लेता, लेकिन आपने कभी खाने के लिए नहीं कहा तो आपकी आज्ञा नहीं होने के कारण मैंने कभी खाये नहीं । तब भगवान् की आज्ञा से जो फल बिना खाये रखे थे वो हनुमान जी से मंगाए गए और उनकी गिनती की गयी और १४ वर्षों में सिर्फ सात दिन के फल कम थे, तब रामजी के पूंछने पर लक्ष्मण जी ने बताया की वो कौन से सात दिन थे जब फलों का संग्रह ही नहीं किया गया था – १) पिता देहांत समाचार वाले दिन २) सीता जी के हरण वाले दिन ३) इंद्रजीत ने जब नागपाश में बाँधा था ४) जब मेघनाद ने माया की सीता का वध किया था ५) पाताल में जब महिरावण के यहाँ बंदी थे तब ६) जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी थी ७) रावण वध वाले दिन ।
लक्ष्मण जी ने कहा हे जगन्नाथ आप विचार करके देखें चौदह वर्ष हमने कुछ नहीं खाया। विश्वामित्र जी के मंत्रोपदेश देने के कारण यह संभव हुआ, उसी कारण १४ वर्ष उपवास रह सका, इसी लिए इंद्रजीत मेरे द्वारा मारा गया । लक्ष्मण जी से यह सब सुन रामजी लक्ष्मण जी को गोद में ले रुदन करने लगे ।
आयोध्या लौटने पर माता कैकई के साथ राम जी का संभाषण ।
राम स्वदेश लौट आये हैं यह समाचार पाकर कैकेयी की आँखें आसुओं से भर आयीं । यदि राम माँ कह कर पुकारें तो मै क्या कहूँगी । अगर राम पहले की ही तरह सम्भाषण न करेंगे तो यह शरीर त्याग दूंगी । कैकेयी ये सोच रहीं थीं रूठ कर बैठीं थीं , राम जी ने यह जान लिया और विमाता के लिए उनके प्राण व्यतिथ हो उठे और वे कैकेयी की कक्ष की और चले ।
उदास चेहरा लिए रानी धूल में बैठीं हैं, ऐसे में राम ने आकर उनकी चरण वंदना की और हाथ जोड़कर कहा माँ मैं चौदह वर्ष के बाद स्वदेश लौट आया हूँ, वन में बहुत बड़ी विपत्ति में फंस गया था, तुम्हारे आशीर्वाद से उन सब से उबर आया हूँ ।
लज़्जा से कैकेयी ने रघुनाथ जी से कहा, तुम्हारे सम्मुख मै दोषी हूँ। देवताओं की कार्य सिद्धि के लिए तुम वन गए और मुझको निमित्त का भागी बना गए। यह सारा संसार जानता है की तुम गोलोक के पति हो, संसार का भार दूर करने के लिए अवतार लिए हुए हो। तुम संसार का सार हो।तुमको कौन पहचान सकता है। तुम्हारे अवतार लेने से सूर्य वंश पवित्र हो गया। शत्रु को मार कर देवताओं की अभिलाषा पूर्ण की और (इसके निमित्त) मेरे शिर पर सारा कलंक थोप गए (संकोच न किया)। बेटा राम, तुम जो मुझे इतना दुःख पहुंचा रहे हो उसका कारण है की मै विमाता हूँ। सदा से तुमको भारत से ज्यादा स्नेह करती हूँ। तुमको तो कुबोल बोली वो तुम्हारी ही माया थी। तुम सर्व स्थानों में स्तिथ हो, सुख-दुःख दायक हो, तुमने जो मेरी इतनी दुर्दशा की वह विमाता समझकर ही की।
राम जी ने लज्जित हो सर झुका कर हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कैकेयी को प्रसन्न करने के लिए कहने लगे । तुम्हारा कोई भी दोष नहीं है माँ , सभी कुछ दैव की विडम्बना है। समय पर ही सब होता है , विधि का लेखा है। तुम्हारी ही कृपा से दशानन का वध किया। तुम्हारे ही कारण मुझे सुग्रीव जैसा मित्र मिला। संकट में सुग्रीव ने मेरे ऊपर बहुत उपकार किया। तुम्हारी ही कृपा से मैंने सागर बांधा, रावण को मार कर देवताओं को तुष्ट किया, लक्ष्मण का भक्ति भाव जाना। यह भी जान सका की सीता पतिव्रता और सती है। माँ तुम्ही से मै धर्म अधर्म सभी कुछ जान सका। यह सब सुन कैकेयी और व्यतिथ हो गयीं। सभी आयोध्या वासियों को राम जी के दर्शन से आनंद प्राप्त हुआ।
हनुमान जी द्वारा मंदोदरी से “रावण का मृत्यु बाण” का हरण
रावण के वध न हो पाने पर राम लक्ष्मण सुग्रीव और विभीषण सभी विचार विमर्ष कर रहे थे, तब विभीषण बोले – हे प्रभु एक पुरानी बात याद आ गयी, जब हम तीनो भाइयों (रावण कुम्भकरण और विभीषण) की तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्मा जी प्रगट हुए तब रावण ने अमर होने का वर माँगा। ब्रह्मा जी ने कहा, हे निशाचर सुनो, अमरता का वर मत मांगो, कोई दूसरा वर मांग लो। लेकिन रावण अपने हठ पर अडिग था इस पर ब्रह्मा जी ने कहा :
दशानन दुखी क्यों होते हो, मै अपने कौशल से तुमको वर देकर तुमको अमर बना दूंगा। तुम्हारे दस मुंड और बीस हाँथ भी काट जाएँ तब भी तुम नहीं मरोगे , तुम्हारे कटे अंग फिर से जुड़ जाएंगे, इस वर के कौशल से तुम सहज ही अमर हो जाओगे। जब तुम्हारे गर्भ में ब्रह्मास्त्र प्रविष्ट हो जायेगा, हे रावण तभी तुम्हारी मृत्यु होगी। यह कहकर ब्रह्मा जी ने एक ब्रह्म बाण रावण को दिया और कहा की तुम्हारी मृत्यु इसी बाण से होगी , इसे उचित स्थान पर रख दो। विपक्षी अगर इस अस्त्र को पा जाये और इस बाण से तुम्हारे ह्रदय पर आघात करे तभी तुम मरोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।
यह अस्त्र पाकर रावण बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने यह बाण रानी मंदोदरी को दिया की कहीं सुरक्षित स्थान पर छुपा कर रख दें । मंदोदरी के सिवाय किसी को नहीं मालूम की वह बाण कहाँ है। विभीषण जी ने कहा मंदोदरी के भवन से यह बाण लाने का साहस कोई नहीं कर सकता है, देवता आदि भी रावण के भय से वहां प्रवेश नहीं कर सकते ऐसे में रावण का वध कैसे संभव हो ?
तभी वहां पवन नंदन हनुमान जी पधारे, वे बोले हे रघुमणि, मै अभी जाकर रावण का मृत्यु-बाण ले आऊंगा, आप आशीर्वाद दें। तत्पश्चात हनुमान जी ने माया से वृद्ध ब्राह्मण का भेष धारण किया, कांख में पोथी पत्र और हाथ में छड़ी लेकर, माथे पर लम्बा तिलक धारण कर धीरे-धीरे पग आगे बढ़ाने लगे, बदन पर झुर्रियाँ और सारे बाल पके हुए थे , और वे रावण राजा की जय की ध्वनि करते हुए मंदोदरी के भवन पहुंचे और रानी के ने बूढ़ा ब्राह्मण देखा तो बड़ी प्रसन्न हुईं, हनुमान जी बोले मै ज्योतिष गणना में बड़ा प्रवीण हूँ और सदा रावण के हित का चिंतन करता हूँ । नर और वानरों ने लंका पर चढ़ाई करके बड़ी विपत्ति खड़ी कर दी , मै देख सकता हूँ की वो क्या कर सकते हैं और क्या नहीं ।
मंदोदरी तुम्हारे कक्ष में जो धन है, उसके प्रभाव से अगर राम भी आ जाएँ तो रावण का क्या बिगाड़ सकते हैं। मंदोदरी ने उत्सुकता पूर्वक पूछा की ऐसा कौन सा धन है ? वृद्ध ब्राह्मण भेष में हनुमान जी ने कहा ज्योतिष गणना द्वारा मुझे अनेक बातें विदित हैं, राजा का जीवन और मृत्यु दोनों ही तुम्हारे भवन में है, रावण अमर हैं, यह बात किसी से नहीं कहना, यह कहकर हनुमान जी उठकर चलने लगे। मंदोदरी ने तब फिर पूंछा की ऐसा कौन सा धन है मेरे पास जो आपने ज्योतिष से जाना?
तब हनुमान जी बोले मंदोदरी मेरे साथ छल मत करो, मेरी विद्या अमोघ है, लंका में जहाँ पर जो चीज है वह मै खड़िया से चारखाना बना कर बता सकता हूँ, अब इन बातों की कोई आवश्यकता नहीं, मुझे मालूम है तुम्हारे पास वह धन रखा है, ब्रह्मा भी आकर स्वयं कहें तो उनको भी मत बताना।
वृद्ध ब्राह्मण की बातो से मंदोदरी को बड़ा विस्मय हुआ, और उसने माना और कहा की उसको बड़े जतन से मैंने छुपा रखा है । ब्राह्मण बोले मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई यह सुनकर, उसे बहुत सावधानी से रखना किसी को भी पतन न पड़ने पाए ।
हनुमान जी फिर चल दिए और थोड़ी देर में मुड़कर फिर वापस आये, और कहने लगे की यह सच है की तुमने उसे अच्छी तरह छुपाया होगा, पर मुझे संशय है क्योंकि घर का भेदी विभीषण बड़ा ही घनघोर शत्रु है, विभीषण को कोई भी स्थान अज्ञात नहीं है, वह आवश्य कुछ अनर्थ कर सकता है । मंदोदरी ने तब कहा द्विज आप अपने ह्रदय में कोई चिंता न रखो विभीषण की क्या सामर्थ्य की उसका निकाल सके। तुम राजा के परम हितैषी हो इसलिए तुम्हारे सामने क्यों न कहूँगी , तुम्हारे आशीर्वाद से उसे कौन ले सकता है, उसे मैंने इस खंबे में छुपाया हुआ है । यह सुनते ही हनुमान जी अपने असल रूप में आये और एक लात से उस खंबे को तोड़ डाला और बाण लेकर छलांग लगा श्री राम के समक्ष पहुँच गए।
(अलग-अलग रामायणों में इस कथा में थोड़ा भेद है जिसका कारण अलग कल्प या मन्वन्तर हो सकता है )
अद्भुत रामायण

संस्कृत में लिखित वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण और अद्भुत रामायण विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
२७ सर्ग में कुल १३५३ श्लोकों की यह अद्भुत रामायण वाल्मीकि ऋषि और उनके शिष्य भरद्वाज ऋषि के संवाद के रूप में गयी हैं ।
अद्भुत रामायण की कुछ प्रमुख विशेषतायें
अद्भुत रामायण में सीता जी के अद्भुत स्वरूप और पराक्रम का वर्णन हैं इसीलिए अद्भुत रामायण नाम यथार्थ है । अन्य किसी भी रामायण में यह सीता जी का महत्व नहीं बताया गया है ।
अद्भुत रामायण कथा ३ भागों में हैं
1) सर्ग २ से ८ तक सीता राम जी के जन्म/अवतार के कारण बताये गए है
२) राम कथा बहुत ही संक्षेप में हैं, अद्भुत रामायण का उद्देश्य पुरुष एवं प्रकृति के स्वरुप सीता राम के ऐश्वर्य और गुणानुवाद करने का हैं । इस भाग में राम जी का परशुराम जी को और ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान जी को विश्वरूप दर्शन देने का उल्लेख मिलता हैं
3) यह भाग सबसे महत्वपूर्ण हैं, १९ से २७ वें सर्ग तक अद्भुत रामायण का प्रयोजन सिद्ध होता हैं-वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस आदि अधिकतर रामायण पुरुष प्रधान है, लेकिन अद्भुत रामायण में प्रकृति (शक्ति) का प्रभाव मुख्य रूप से वर्णित हैं।
सीता जी ने एक विकट पराक्रमी असुर सहस्त्रमुख रावण का भद्रकाली का रूप धरकर वध किया । सहस्त्रमुख रावण के वध के पश्चात राम जी ने शक्ति-स्वरूपिणी सीता जी सहस्त्रनाम से स्तुति करते है ।
अद्भुत रामायण में भगवान् राम हनुमान जी और परशुराम जी को अपने चतुर्भुज रूप का दर्शन कराते है।
अद्भुत रामायण की कुछ कथाएं
सीता जी द्वारा सहस्त्रमुख रावण का वध
अद्भुत रामायण में “सहस्रमुख रावण वध” प्रसंग रामकथा का एक अत्यंत विलक्षण और दुर्लभ रूप है, जो वाल्मीकि, तुलसी या अन्य रामायण में नहीं मिलता। संक्षेप में यह कथा इस प्रकार है-
रावण वध पश्चात अयोध्या दरबार में सभी मुनि गणों ने राजा राम की प्रशंसा की, और कहा हे देव! पुत्रो एवं अमात्यों सहित रावण का वध करने के कारण आप ही जगत के नाथ और जगत का उपकार करने वाले हैं । जब मुनि-गण यह कह रहे थे तब सीता जी ने एक सहस्त्रमुख रावण के बारे में बताया जो दशानन रावण का बड़ा भाई था और उससे भी ज्यादा शक्तिशाली है।
सहस्त्रमुख रावण के बारे में एक ब्राह्मण जिन्होंने जनक जी के यहाँ चौमासा किया था उन्होंने राजा जनक और सीता जी से प्रसन्न हो बताया था, की वह पुष्कर द्वीप में निवास करता है , वह जगत को अपनी बाहु लीला से सरलता से वश करके रहता है । वह इन्द्रादि देवताओं किन्नरों गंधर्वों , भयंकर दानवों, सर्पों तथा विद्याधरों को गले में बाँध बाल क्रीड़ा के समान खेलता है, समुद्र और सभी लोकों को तृण के समान मानता है ।
रावण को उसके अनुचरों, पुत्रों अमात्यों एवं भाईओं सहित मार कर मेर पति श्री राम ने बहुत लोक हितकारी काम किया। फिर भी मुझे कुछ आश्चर्य सा नहीं लगता, अगर वे इस दुरात्मा राक्षस सहस्त्रवदन (सहस्त्रमुख) का वध करें तो उन्हें महान कीर्ति प्राप्त होगी और जगत को स्वस्तथा मिलेगी।
सहस्त्रमुख वध हेतु लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सुग्रीव आदि वानरों एवं सीता जी सहित राम जी का गमन
यह सुनकर सब मुनिगण साधू ! साधू! कहने लगे, जानकी जी की प्रशंसा करने लगे। वीर्य की वृद्धि करने वाले वचन सुन श्रीराम ने जोर से सिंहनाद किया और सबको आज्ञा दी “हे मुनियों ! आज ही रावण को जीतने जाना चाहिए। प्रभु ने लक्ष्मण , भारत शत्रुघ्न, मित्र सुग्रीव आदि को आज्ञा दी और पुष्पक विमान का स्मरण किया। फिर सभी के साथ महा बलवान श्री रामचंद्र और जानकी जी भी पुष्पक विमान में आरूढ़ हुए और चल दिए।
भाइयों एवं वानर श्रेष्ठों के साथ राम जी ने सिंघनाद किया उससे होने वाले शब्द ने पृथ्वी आकाश तथा पाताल को कंपा दिया जिसे सुनकर “यह क्या है” कहते हुए सहस्रमुख रावण उठ खड़ा हुआ ।
सहस्त्रवदन क्रोधपूर्ण वाणी से कहने लगा, ” यह कौन है जो शत्रुतावश मेरे नगर में सिंघनाद कर रहा है, मेरा भी कोई शत्रु है ? मेरु आदि पर्वतों को मै अणुरूप में चूर्ण -चूर्ण कर सकता हूँ, ब्रह्मा ने प्रिय वचनों से मुझे रोक रखा है नहीं तो पृथ्वी तथा शेषनाग को मै अपने नखों से नष्ट भ्रष्ट कर सकता हूँ” इस प्रकार गर्जना करते हुए वह राम के समीप आया, उसके सभी सेनापति साथ में तरह-तरह के आयुधों से संपन्न थे।
सहस्त्रवदन यह सोच ही रहा था यह कौन है, किसलिए आया है तभी आकाशवाणी हुई “हे महवीर्यवान रावण, ये रामचंद्र आये हैं, धर्म-स्वरूपधारी अयोध्या के राजा जिन्होंने तुम्हारे छोटे भाई रावण का लंका में वध किया है। विभीषण को लंका का राज्य देने वाले राम तेरा वाद वध करने भाई, वानर मनुष्यों के साथ आये हैं।”
यह वचन सुन सहस्त्रमुख रावण और क्रोध से यह कहने लगा – शत्रु रूपी इस मनुष्य को मारो , और ऐसा कहकर वह पुष्पक विमान पर बानो के समूह, चक्र, पर्वत, तोमर आदि फेंकने लगा। दोनों तरफ के योद्धाओं में भीषण युद्ध छिड़ गया। सहस्त्रमुख ने विचित्र वायव्यास्त्र चालाया, जसके प्रभाव से राम जी की सेना के सभी वानर, रीछ, राक्षस, मनुष्य, सभी जिस जिस देश से आये थे उस उस देश में वापस पहुँच गए, सभी आश्चर्य करने लगे की हम कहाँ थे कहाँ आ गए ! पुष्कर दीप में पुष्पक विमान में केवल राम जी और सीता जी ही रहे, वायव्यास्त्र सीता राम को हटाने में नहीं समर्थ हुआ ।
राक्षसों के स्वाभाविक शत्रु श्री राम बड़े कुपित हुए और प्रलय की अग्नि के समान श्रेष्ठ धनुष को खींचा तथा वेग से राक्षसों पर बानो का प्रहार प्रारम्भ किया, सेना की हानि देख रावण आगे आकर राम से भीषण युद्ध करने लगा, और कहा की आज मै अकेला ही पृथ्वी को मनुष्य विहीन और स्वर्ग को देवताओं से शून्य कर दूंगा और समुद्र को सूखा डालूंगा। दोनों ही भयानक अस्त्रों-शस्त्रों का प्रयोग कर रहे थे, जब काफी समय तक रावण का वध न हुआ तब राम ने जिस बाण से लंका में रावण का वध किया था, वह बाण इंद्र के हाथ द्वारा छोड़े गए वज्र के समान अमोघ था, उसका प्रयोग किया पर सहस्रमुख रावण ने उस बाण को भी अपने बाएं हाँथ से पकड़ लिया और तोड़ डाला। यह देख रामजी को बड़ी खिन्नता हुई।
राम जी अचेत हो गए
फिर सहस्त्रवदन रावण ने एक तीक्ष्ण बाण लेकर सारी शक्ति लगा कर राम की छाती में मारा जिससे महाबाहु राम पुष्पक से गिर पड़े और अचेत हो गए। सभी प्राणियों में हाहाकार मच गया ऋषि मुनि भी हे राम आदि के शब्द कहने लगे ।
तब वशिष्ठ आदि मुनि सीता जी की ओर देख कर कहने लगे ” हे सीते तुमने राम को क्यों सहस्त्रमुख रावण की बात सुनाई ? यह घोर विपत्ति उपस्तिथ हुई है। राम को यह क्या हो गया, सब भाई और वानर किधर गए?, मुनिओं के वचन सुनकर और राम जी को अचेत देखकर, और रावण को शोर मचाते देखकर जनक-नन्दिनी सीता ने ऊँचे स्वर से अट्टहास करते अपना वर्तमान स्वरूप त्याग दिया और महा भयानक रूप धारण किया।
गले में मुंड माला, भयंकर वेग, तीक्ष्ण शब्द वाली, महा घोर, विकृत मुख वाली, चलायमान जीभ, प्रलय के बदल के समान कांति वाली के रूप में सीता जी ने पुष्पक से शीघ्र उतरकर, खडग, खर्पर धारण किये क्षण भर में रावण के रथ पर टूट पड़ीं और एक निमिष मात्र में ही रावण के सहस्त्र शिर खडग से तुरंत ही काट डाले। दूसरे सेनापतियों, राक्षसों के सर नख से चीर डाले कइयों के अंग- भंग कर डाले।
जब युद्ध चल रहा था तभी जानकी जी के रोम कूपों से असंख्य विकृत आकर वाली मातृकाएं हंसती हुई उपस्तिथ हुईं जिनसे चराचर तीनो लोक व्याप्त हैं। ये सहस्त्रों मातृकाएं जानकी जी के साथ युद्ध भूमि में ही क्रीड़ा करने लगीं , मांस रुधिर के कीचड से लथपथ उस रणस्थल में बड़ा ही भयावह दृश्य उपस्थित हो गया । सीताजी के अट्टहास और मातृकाओं की हुंकार से सभी बड़े व्याकुल हो गए की क्या प्रलय हो गयी । सभी सीताजी को शांत एवं प्रसन्न करने के लिए प्रणाम स्तुति द्वारा प्रयत्न करने लगे ।
पुष्पक में अचेत हुए राम जी को ब्रह्मा और देवताओं ने तब स्मृति दिलाई, महाबाहु राम उठे और उन्होंने सीता जी को न देख युद्ध स्थल में नृत्य करती हुई महाकाली को देखा , और उनका धनुष छूट कर धरती पर गिर गया। तब ब्रह्मादि देवताओं ने सब वृतांत राम जी को सुनाया और फिर राम जी सीताजी से इस प्रकार बोले -“हे देवी विशाल नेत्र वाली चन्द्रखण्ड से अंकित हे महादेवी! मै तुम्हे नहीं जानता, मुझे तुम अपना परिचय बताओ।”
फिर सहस्त्रवदन रावण ने एक तीक्ष्ण बाण लेकर सारी शक्ति लगा कर राम की छाती में मारा जिससे महाबाहु राम पुष्पक से गिर पड़े और अचेत हो गए। सभी प्राणियों में हाहाकार मच गया ऋषि मुनि भी हे राम आदि के शब्द कहने लगे ।
जनक-नन्दिनी सीता ने महा भयानक रूप धारण कर सहस्त्रमुख रावण का वध किया
तब वशिष्ठ आदि मुनि सीता जी की ओर देख कर कहने लगे ” हे हे सीते तुमने राम को क्यों सहस्त्रमुख रावण की बात सुनाई ? यह घोर विपत्ति उपस्तिथ हुई है। राम को यह क्या हो गया, सब भाई और वानर किधर गए?, मुनिओं के वचन सुनकर और राम जी को अचेत देखकर, और रावण को शोर मचाते देखकर जनक-नन्दिनी सीता ने ऊँचे स्वर से अट्टहास करते अपना वर्तमान स्वरूप त्याग दिया और महा भयानक रूप धारण किया।
गले में मुंड माला, भयंकर वेग, तीक्ष्ण शब्द वाली, महा घोर, विकृत मुख वाली, चलायमान जीभ, प्रलय के बदल के समान कांति वाली के रूप में सीता जी ने पुष्पक से शीघ्र उतरकर, खडग, खर्पर धारण किये क्षण भर में रावण के रथ पर टूट पड़ीं और एक निमिष मात्र में ही रावण के सहस्त्र शिर खडग से तुरंत ही काट डाले। दूसरे सेनापतियों, राक्षसों के सर नख से चीर डाले कइयों के अंग- भंग कर डाले।
जब युद्ध चल रहा था तभी जानकी जी के रोम कूपों से असंख्य विकृत आकर वाली मातृकाएं हंसती हुई उपस्तिथ हुईं जिनसे चराचर तीनो लोक व्याप्त हैं। ये सहस्त्रों मातृकाएं जानकी जी के साथ युद्ध भूमि में ही क्रीड़ा करने लगीं , मांस रुधिर के कीचड से लथपथ उस रणस्थल में बड़ा ही भयावह दृश्य उपस्थित हो गया । सीताजी के अट्टहास और मातृकाओं की हुंकार से सभी बड़े व्याकुल हो गए की क्या प्रलय हो गयी । सभी सीताजी को शांत एवं प्रसन्न करने के लिए प्रणाम स्तुति द्वारा प्रयत्न करने लगे ।
पुष्पक में अचेत हुए राम जी को ब्रह्मा और देवताओं ने तब स्मृति दिलाई, महाबाहु राम उठे और उन्होंने सीता जी को न देख युद्ध स्थल में नृत्य करती हुई महाकाली को देखा , और उनका धनुष छूट कर धरती पर गिर गया। तब ब्रह्मादि देवताओं ने सब वृतांत राम जी को सुनाया और फिर राम जी सीताजी से इस प्रकार बोले -“हे देवी विशाल नेत्र वाली चन्द्रखण्ड से अंकित हे महादेवी! मै तुम्हे नहीं जानता, मुझे तुम अपना परिचय बताओ।“
देवी ने तब राम जी को अपने सर्व ऐश्वर्ययुक्त दर्शन कराये, फिर राम जी ने एक हज़ार आठ नामो से परमेश्वरि की स्तुति की।
यह अद्भुत कथा और सीता जी के सहस्त्रनाम और किसी भी रामायण ग्रन्थ में नहीं हैं।