
इस जन्म को ऐसे ही न गवाएं !!!
हम ८४ लाख योनियों में अनेकों बार जन्म ले चुके हैं, असंख्य बार मनुष्य जन्म ले चुके हैं लेकिन इतने बार मनुष्य बनकर भी हमने भगवान् को प्राप्त नहीं किया… जिसके लिए अत्यंत करुणामय भगवान् हमको मनुष्य जन्म देते हैं,… जी हाँ !
आप इस लेख को पढ़ रहे हैं इसका अर्थ है की आपको असंख्य मनुष्य जन्म प्राप्त हो चुके हैं और हर जन्म आपने भोग -विलास में व्यर्थ गंवा दिया भगवान् की प्राप्ति नहीं कर पाए
सनातन धर्म शास्त्रों में मनुष्य जीवन का लक्ष्य
वर्तमान समय में अधिकतर लोगों का जीवन का लक्ष्य यही होता है की अच्छी पढाई लिखाई, बड़ी-बड़ी डिग्रियां, बड़े पद पर नौकरी , खूब धन समृद्धि के साधन, अच्छा विवाह, संतानोत्पत्ति, अच्छा स्वस्थ समृद्ध सुखी परिवार हो जाये और सब आनंद पूर्वक जीवन यापन करें । समस्त जीव केवल आनंद और सुख चाहता है, और इसलिए भौतिक धन संपदा से सुख मिलेगा यह सोचकर उसी के पीछे दौड़ता रहता है लेकिन ये सब प्राप्त होने पर भी सुख नहीं मिलता उलटा दुःख ही मिलता हैं ।
कुछ पद प्रतिष्ठा बना लेना , धनार्जन कर लेना और परिवार के साथ कुछ सुखपूर्वक बिताया हुआ समय ही मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है ।
मानव जीवन का शास्त्रों के अनुसार वास्तविक लक्ष्य तो यह है की हम इस सृष्टि के मूल कारण तत्व को जान लें , और संसार के दुखों से हमारी निवृति कैसे हो उसका उपाय हम जान लें।
कठोपनिषद में कहा है –
इह चेदशकद्बोद्धुं प्राक् शरीरस्य विस्रसः।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ॥ 2/3/4
ऐ मनुष्यों ! तुमको जो मानव शरीर मिला है यह बहुत महत्वपूर्ण है दुर्लभ है यह मनुष्य शरीर पाकर ईश्वर भक्ति करके अपना लक्ष्य प्राप्त कर लो, नहीं तो ‘सर्गेषु’ (करोड़ों कल्प तक*) चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ेगा।
* एक कल्प – ब्रह्मा जी का एक दिन होता है जिसमे १००० बार चारों युग (सत, त्रेता, द्वापर और कलियुग) बीत जाते हैं। 4.32 लाख वर्ष का कलियुग, उसका दोगुना द्वापर युग, तीन गुना त्रेता युग, और कलियुग का चार गुना सतयुग, 43 लाख 20 हजार वर्ष के चार युग होते हैं और ऐसे हज़ार बार चारो युग बीतने पर एक कल्प होता है । एक कल्प ब्रह्मा जी का एक दिन होता है यानि ४ अरब २९ करोड़ ४० लाख ८० हज़ार वर्ष का ब्रह्मा जी का एक दिन, ब्रह्मा जी का एक साल ३६५ कल्प (ब्रह्मा जी का एक दिन X ३६५) का होता है। इस माप से ब्रह्मा जी की आयु १०० वर्ष की होती है ।
सबसे दुर्लभ और अनमोल मनुष्य शरीर हमें भगवान् की प्राप्ति के लिए मिला है
अगर हमने इस मानव देह / जीवन का महत्व नहीं समझा, अपने लक्ष्य (भगवान् की प्राप्ति) को नहीं पाया तो करोड़ों कल्प तक कहिये फिर मनुष्य जन्म नहीं मिले।
श्रीमद भगवत में कहा है –
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम् ।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा ॥ 11/20/१७ ॥यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका आदि कारण है, यह (पुण्यवान् के लिये) सुलभ और (पापात्मा के लिये) अत्यन्त दुर्लभ है। (भवसागरसे पार होनेके लिये) सुदृढ़ नौका रूप है। गुरु ही इसके कर्णधार हैं। अनुकूल वायु रूप मेरी सहायता पाकर यह पार लग जाती है। (यह सब सुयोग पाकर भी) जो पुरुष संसार-समुद्र से पार नहीं होता, वह आत्मघाती ही है 1।’
अति दुर्लभ मनुष्य का शरीर सांसारिक बंधनो रूपी जो समुद्र है उसको पार करने के लिए एक नौका के समान है, जिसका सन्चालन गुरु देव करते हैं और ईश्वर की वायु रूप अनुकूलता प्राप्त कराकर हमारे शरीर रूपी नौका को भवसागर से पार कराते हैं ! अगर मनुष्य इस दुर्लभ मानव शरीर का सदुपयोग करके सांसारिक बंधनो से मुक्त होने का भगवान् प्राप्ति का प्रयास नहीं करता तो वह अपना जीवन व्यर्थ कर रहा है
मानव शरीर देवताओं के शरीर से भी श्रेष्ठ?
८४ लाख योनियों में सिर्फ मनुष्य योनि ही ऐसी है जिसमें हम भगवान् की प्राप्ति कर सकते हैं। देव योनि तक मे बहुत ज्ञान बल सिद्धियां होते हुए भी वे साधन कर के मोक्ष प्राप्ति, भगवान् धाम की प्राप्ति नहीं कर सकते ।
देवताओं का शरीर पुण्य-मय होता है बहुत दिव्य होता है । वे एक ही काल में (समय में ) अनंत स्थानों में उपस्थित हो पूजन ग्रहण कर सकते हैं ऐसी विलक्षण सामर्थ्य उनमें होती है । इतने पर भी मनुष्य शरीर की महिमा देव शरीर से भी उत्तम और दुर्लभ मानी जाती है, क्योंकि देवताओं का शरीर भोग शरीर है पुण्यों के भोग के लिए मिला है वे नए कर्म नहीं कर सकते न ही मोक्ष प्राप्ति कर सकते हैं । संसार चक्र से छूटने हेतु मोक्ष प्राप्ति हेतु उनको भी मनुष्य शरीर ग्रहण करना ही पड़ेगा
उदाहरण: नलकूबर और मणिग्रीव, कुबेर के पुत्र थे, जो नारद मुनि के शाप के कारण वृक्ष बन गए थे। ऊखल लीला में भगवन ने उन्हें मुक्त किया और दोनों ने भगवान् की स्तुति की और ब्रज में बहुत समय वृक्ष रूप में वास फिर भगवान् के द्वारा मुक्त होकर भगवन की भक्ति भी प्राप्त हुई पर वृक्ष योनि से छूटने के बाद वे गए अपने पिता कुबेर के लोक अलकापुरी ही भगवान् के धाम नहीं … क्योकि उसके लिए मोक्ष प्राप्ति के लिए उन्हें मनुष्य जन्म लेना ही पड़ेगा ।
जीविका जीवन के लिए है पर जीवन जीविका के लिए नहीं ! जीवन है भगवान् की प्राप्ति के लिए !!!
• जीवन निर्वाह के लिए हम जो जीविका का साधन अपनाते हैं वह धर्म पूर्वक जरूर करें, धन कमाएं स्वयं और आप पर आश्रित परिवार जनों का पोषण के लिए वह अति आवश्यक है। लेकिन सिर्फ धनोपार्जन में ही हम अपना सारा समय गवाएं, तो यह तो इस अनमोल मनुष्य देह को पाकर भी पूरा जीवन काल व्यर्थ करना हुआ।
• इसलिए भी यह महत्वपूर्ण है की जितना समय और पुरुषार्थ हम धन कमाने के लिए लगाते हैं, वह तो प्रारब्ध का विषय है और श्रम न करें तो भी मिलेगा ही। लेकिन भगवान् की प्राप्ति, मृत्यु के उपरांत अगला जन्म या अच्छे लोकों की प्राप्ति प्रारब्ध का विषय नहीं है । इसलिए हमे इसमें ज्यादा समय और पुरुषार्थ , श्रम लगाना चाहिए ।
• मनुष्य जीवन का एकमात्र ध्येय / लक्ष्य है जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति – इसको ही भगवत-प्राप्ति, भगवत प्रेम प्राप्ति, मोक्ष, आत्म-साक्षात्कार, तत्व ज्ञान आदि कहा जाता है।
• सिर्फ मनुष्य शरीर ही साधन कर इस जीवन मे ही भगवत प्राप्ति कर सकता है क्योंकि केवल मनुष्य ही कर्म करने मे स्वतंत्र है –
• मनुष्य साधना कर के भगवत प्राप्ति कर सकता है, सत्कर्म करके स्वर्ग की प्राप्ति कर सकता है,
• अधर्म और पाप कर्म करके नर्क भी जा सकता है और पशु पक्षी कीट पतंगा वृक्ष आदि योनिओं मे भी जा सकता है।
• इस जीवन को व्यर्थ अनर्थ कार्यों मे लगाकर अपना दुखद भविष्य बना सकता है अनंत काल तक नर्क की यातनाएं और अनेकों भोग योनियों मे भटक सकता है ।

अधिकतर मनुष्य भोगों में आसक्त होने के कारण दुर्गति को प्राप्त होते हैं – भगवत गीता!
मनुष्य जीवन के असली उद्देश्य को भूल, अहंता-ममता, राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ आदि से अभिभूत हो ऐसे कर्म करता है जिससे जीवन भर मृत्यु लोक मे दुःख अशांति रोग आदि को प्राप्त करता है और भोग विलास के हेतु पाप कर्मो के कारण मृत्यु के उपरांत आसुरी योनियों और नरकों मे घोर यातनाएं पाता है।
भगवन ने गीता मे कहा है –
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।16.20।।
हे कुन्तीनन्दन ! वे मूढ मनुष्य मेरे को न प्राप्त करके जन्म-जन्मान्तर में आसुरी योनि (राक्षस, पिशाच, भूत-प्रेत या कुत्ता, सूअर गधे आदि), को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अधिक अधम गति में अर्थात् भयंकर नर्कों में चले जाते हैं । दुर्लभ मनुष्य योनि का यह अत्यंत अवांछनीय दुष्परिणाम है ।
जरुरी नहीं की आपका अगला जन्म मनुष्य का ही हो !
यह भ्रम बहुत लोगों को होता है की उनका अगला जन्म मनुष्य का ही होगा, अपने कर्मों के अनुसार नए शरीर की प्राप्ति होती है। वह देवता या राक्षस योनि मे जा सकता है, पशु पक्षी कीट पतंगा या वृक्ष योनि मे भी जा सकता है ।
इसलिए मनुष्य को सावधान होकर धर्म पूर्वक जीवन यापन करना चाहिए, सत्कर्म और भजन पूजन करना चाहिए जिससे इस जन्म मे ही वह भवसागर से पार लग जाये।
ठीक है, समझ गए, भगवान् ने यह मानव शरीर उनकी प्राप्ति के लिए दिया है! …तो कैसे करें भगवत प्राप्ति ?
ऋषि मुनि संत महात्मा और गुरुजनों ने भगवान् प्राप्ति के अनेक उपाय बताये हैं जिनमे ज्ञान योग कर्म योग और भक्ति योग सभी ने सुने होंगे । वर्तमान कलियुग मे ज्ञान-योग और कर्म-योग के साधन सामान्य मनुष्य के लिए संभव नहीं हैं । इसलिए तीसरा भक्ति मार्ग ही सबसे उपयुक्त और सरल है। हमें भक्ति मार्ग को ही समझ कर अपनाना चाहिए ।
श्रीमद भागवत मे नौ प्रकार की भक्ति बताई है जिसे नवधा भक्ति कहते हैं (श्रवण, कीर्तन, स्मरण:, पादसेवनं,अर्चनं, वन्दनं, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदनं)
श्रीप्रह्राद उवाच –
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ (श्रीमद्भा० 7 । 5। 23 )
भगवान की कथा लीला श्रवण करना श्रवण भक्ति, भगवान् के नाम गुण और लीलाओं का प्रेम-पूर्वक गायन करना कीर्तन है, निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना (नाम जप) स्मरण भक्ति है, ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना (शरणागत) पादसेवनं भक्ति है, मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के विग्रह का पूजन अर्चन भक्ति है, भगवन को नमन, स्तुति आरती आदि से पूजन करना वंदन भक्ति, स्वयं को दास और भगवान् को स्वंय मान उनकी सेवा और उनके प्रिय कार्य करना दास्य भक्ति, ईश्वर को मित्र भाव से भजन करना सख्य भक्ति, और स्वयं को भगवान् के शरणागत हो सम्पूर्ण समर्पण कर देना आत्म-निवेदनं भक्ति है (जो राजा बलि ने किया )
भक्ति योग की सिद्धि के लिए सबसे आवश्यक उपाय जो सबसे सरल भी है और अगर श्रद्धा न हो तो कठिन भी !
भगवान स्वयं कहते हैं की सब कामनाओं को छोड़ कर जीव मेरी शरणागति कर ले यही मेरी प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है। ज्ञान, कर्म, उपासना, भक्ति भी साधन हैं लेकिन इन सभी साधनों से श्रेष्ठ साधन है शरणागति। शरणगति को ही प्रपत्ति कहते हैं।
गीता में भगवान ने अर्जुन को कर्म ज्ञान भक्तियोग का उपदेश किया, पर तब भी अर्जुन का मोह भांग नहीं हुआ, अर्जुन ने तब उनसे कहा की मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा, क्या करूँ यह निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ, कौन सा साधन अपनाऊं की मेरा कल्याण हो और सभी कर्म बंधनों से मुक्त हो जाऊं, तब भगवान ने कहा की अर्जुन अभी तक जो मैंने बताया वो गोपनीय था लेकिंन जो मै तुम्हें अब बता रहा हूँ वह परम गोपनीय ज्ञान है, अपना मन मुझमे लगा कर सिर्फ मेरा यजन करो और सभी साधनों का भरोसा छोड़ दो। जिन साधनों को तुम कल्याण प्रद मान रहे हो – जप तप, भक्ति, ज्ञान, कर्मकांड, यज्ञ, समाधि से अगर तुम सोचते हो की मुझे पा लोगे, कर्म बंधनों से मुक्त हो जाओगे, उन सारे साधनों और धर्मों को छोड़कर तुम मेरी शरण में चले आओ …मै तुमको सभी पापों से मुक्त कर दूंगा …
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥६६॥
शरणागति सिर्फ एक बार ही करनी पड़ती है फिर उस जीव का भगवान् कभी त्याग नहीं करते ।
————————–X——————————————————————X—————-
References:
1. मनुष्य क्या चाहता है? मनुष्य जीवन का उद्देश्य (2007) -1/8 | Jagadguru Kripaluji Maharaj, , https://www.youtube.com/watch?v=_VERfnJ2mcM
2. https://seekertruth.org/article/shreemadbhagavatamen-vishuddh-bhakti
3. https://www.youtube.com/watch?v=mvZK9aoEmKU&t=378s
4. https://www.youtube.com/watch?v=5kI2PpGU_8s
5. कल्याण, परलोक और पुनर्जन्मांक, गीत प्रेस, पेज ६३०