
मृत्यु के उपरान्त किसकी क्या गति होती है … उसके शास्त्रीय सिद्धांत !
- स्वर्ग, नर्क, परलोक, भगवत-धाम, आदि विषय हम सभी को विस्मित करते हैं और चूँकि मृत्यु उपरान्त कोई वापस नहीं आता इसलिए अधिकतर लोगों को शंकाएं रहती हैं, जिज्ञासा रहती है ।
- मृत्यु के उपरांत किसकी क्या गति होती है, धर्म-शास्त्रों में उसके क्या सिद्धांत हैं उनको जानना सबसे ज्यादा आवश्यक है इस विषय को ठीक-ठीक समझने के लिए
- स्वर्ग नर्क मृत्यु उपरान्त प्राप्त होने की जो व्यवस्था है ये केवल मनुष्यों के लिए है और किसी भी दूसरी योनि (पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष) के जीव के लिए नहीं ।
- क्योंकि अच्छे कर्म स्वर्ग की प्राप्ति और बुरे कर्म नर्क प्राप्ति करवाते हैं और कर्म करने का अधिकार और स्वतंत्रता सिर्फ मनुष्यों को ही है । बाकी जो योनियां है वो तो जब मनुष्य योनि में थे उसमें उन्होंने जो कर्म किये उनका ही फल भोग रहे हैं… पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष आदि की योनियां पाकर ।
८४ लाख योनियाँ जिसमें केवल मनुष्य योनि ही कर्म योनि है बाकी सब भोग योनि
- हम सभी के मन में कभी न कभी ये प्रश्न उठता है की अगर हमारा भाग्य लिखा जा चुका है और सब कुछ उसके अनुसार ही होता है तो फिर हम श्रम क्यों करें ? कुछ वीर मनुष्य मानते तो हैं भाग्य या प्रारब्ध को, लेकिन अपने पुरुषार्थ से श्रम से जो दुःख देने वाला प्रारब्ध है उसको मिटाने की चेष्टा करते रहते हैं ।
- इसका उत्तर है हमारा मनुष्य योनि में जन्म होना जो की श्रेष्ठतम योनि है और कर्म योनि है । बाकी सभी योनियां भोग योनियां हैं ।
- भाग्य या प्रारब्ध हमारे पूर्व जन्मों (मनुष्य योनि में) के कर्मों के आधार पर बनता है, और चूँकि सिर्फ मनुष्य को ही नए कर्म करने का अधिकार है इसलिए मनुष्य अपने प्रारभ्ध को भोगने के लिए बाध्य नहीं है, मनुष्य सत्कर्म करके अपने बुरे प्रारभ्ध के भोग को कम कर सकता है और स्वर्ग अथवा नर्क प्राप्ति के उपाय कर सकता है ।
ये बहुत बड़ा अंतर है ८४ लाख योनियाँ जिसमें पशु, पक्षी, कीट, पतंगा, पेड़, पौधे सभी आते हैं उनमें सिर्फ मनुष्य योनि ही कर्म योनि है बाकी सब भोग योनि
स्वर्ग, नर्क और भगवत धाम आदि की व्यवस्था की आवश्यकता क्या है ?
हमने असंख्य बार मनुष्य जन्म लिया है और सभी जन्मो के असंख्य अच्छे-बुरे कर्म किये हैं ये असंख्य कर्म संचित कर्म कहलाते हैं। भगवान् की कृपा और करुणा से हमे जो वर्तमान मनुष्य शरीर मिला है वह असंख्य संचित कर्मो में से कुछ पाप-पुण्यों को भोगने के लिए मिला है, वही हमारे इस शरीर का प्रारभ्ध है ।
जब प्रारब्ध का भोग पूरा हो जाता है तो मृत्यु हो जाती है। लेकिन चूँकि मनुष्य योनि कर्म योनि है इस जन्म में भी हमने बहुत से अच्छे बुरे कर्म किये जो संचित में जमा हो गए ।
हमने असंख्य बार अनेकों दूसरी भोग योनियों में भी जन्म लिया है और अनेकों बार स्वर्ग और नर्क जा चुके हैं अपने संचित कर्मों के फल भोगने।
स्वर्ग और नर्क सत्य हैं ।
यह भगवान् की व्यवस्था है:
पुण्य कर्मों का फल भोगने के लिए स्वर्ग और पाप कर्मों का फल भोगने के लिए नर्क।
हम वर्तमान शरीर से भी पुण्य और पापों का फल भोग सकते हैं तो फिर
स्वर्ग– नर्क की व्यवस्था क्यों ?
- अगर हमारे पुण्य अति उग्र हों (अधिक हों) तो मनुष्य शरीर से हम उनका फल भोग ही नहीं सकते उसके लिए पुण्यों के फल भोग हेतु दिव्य शरीर प्राप्त होता है स्वर्ग में जिसमें ये सामर्थ्य होता है की बहुत ऊँचे स्तर के सुख भोग कर सके
- इसी तरह जघन्य अपराध और बहुत भीषण पाप करने वाले मनुष्य को बड़ी से बड़ी सजा जो मृत्यु लोक में संभव है वह मृत्यु दंड, लेकिन अगर किसी ने एक हत्या की और किसी ने हज़ारों हत्याएं की, उन दोनों को ही मृत्यु दंड मिला तो यह तो अन्याय हुआ। हज़ार हत्या करने वाले पापी को तो हज़ार बार मृत्यु के समान कष्ट भोगना पड़े तभी उसकी सजा उचित होगी। इसलिए नर्क में यातना शरीर मिलता है जिसको कितनी भी नारकीय यातनाएं दी जाए उसकी मृत्यु नहीं होती लेकिन कष्ट यातना के अनुरूप ही होता है ।
भगवान् तो बहुत करुणामय हैं तब फिर उन्होंने ऐसी कठोर दंड देने की व्यवस्था क्यों की, नर्क क्यों बनाये?
भगवान् की व्यवस्था में सभी कर्मों का उचित फल देने का विधान है और मनुष्य अपने पाप और पुण्य दोनों कर्मों का फल भोग कर ही नष्ट कर सकता है ।
पूजनीय राघवाचार्य स्वामी जी ने अपने एक प्रवचन में बहुत अच्छा उदाहरण देकर समझाया है की नरकों को बनाने में भी भगवान् की असीम कृपा ही छुपी हुई है ।
अक्सर बच्चे विषेशकर सर्दियों में कई कई दिनों तक माँ की बात नहीं सुनते नहाने में आनाकानी करते हैं तब फिर माता २-३ दिन तो रुकी रहती है पर फिर जबरदस्ती रगड़ रगड़ कर बच्चे को नहला देती है । इसमें ऊपर से देखने में तो कठोरता दिखती है पर इसमें माँ की करुणा ही है जिससे बच्चे को गन्दगी की वजह से बीमारियां न हों ।
इसी तरह जब भगवान् देखते हैं की जीव के पापों का संचय इतना अधिक है की उसके द्वारा प्रायश्चित करना या फल का भोगना संभव नहीं है तब उसको नर्क में सभी पापों का फल भोग करवा कर शुद्ध करवा देते हैं!

अगर किसी ने पाप किये हैं तो नर्क से बचने के क्या उपाय हैं ?
श्रीमद भगवत पुराण में शुकदेव जी से नरकों का वर्णन सुनकर राजा परीक्षित घबरा गए और उन्होंने शुकदेव जी से बचने के उपाय पूंछे तब उन्होंने कहा ।
केचित्केवलया भक्त्या वासुदेवपरायणा: ।
अघं धुन्वन्ति कार्त्स्न्येन नीहारमिव भास्कर: ॥६.१. १५ ॥
केवल भगवान् की भक्ति के द्वारा जन्म जन्मान्तर के सारे पाप नष्ट हो सकते हैं, भक्ति की ये विशेषता है । व्यक्ति ने कितने भी घोर पाप किये हों लेकिन अगर वो एक बार संकल्प कर ले की अब वो कोई पाप नहीं करेगा और भगवान् से प्रार्थना करे की हे प्रभु मेरे पापों को क्षमा कर दीजिये । भगवान् इतने दयालु हैं की उसी क्षण उसके सारे पाप क्षमा कर देते हैं, एक जन्म की, की गयी भक्ति उसके कई जन्मो के पापों को नष्ट कर देती है।
भगवान् की भक्ति से मनुष्य के जन्म जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं
भगवान् ने गीता में अंत में कहा है:-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: || 18.66||अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: || 18.66||
भगवान् का वचन है की सब धर्मों को छोड़कर तुम मेरी शरण में आ जाओ, चिंता मत करो, मैं तुमको सब पापों से मुक्त कर दूंगा, लेकिन शर्त ये है की आगे फिर कभी तुम पाप मत करना ।
आइये शास्त्रों में इस विषय के क्या प्रमाण हैं उन्हें संक्षेप में जाने
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।16.21।।भगवान् ने भगवत गीता में काम क्रोध और लोभ को सभी अनर्थों का मूल कारण और नरकों का द्वार कहा है।ये जीवात्मा का पतन करने वाले हैं अर्थात इन दोषो को मनुष्य को अधोगति में पहुंचाने वाला मान त्यागने का उपदेश दिया है।
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥ (मानस २ । २१८ ।२)
जैसे कर्म किया जाता है वैसे ही फल मनुष्य को भोगने पड़ते हैं इस जगत में कर्म की ही प्रधानता है। जीवन में जो सुख दुःख हम भोगते हैं वे हमारे ही पूर्व कर्मों का फल है ।
मृत्यु के उपरान्त शरीर तो यहीं छूट जाता है तो कर्म फल कौन भोगता है ?
मृत्यु के बाद जीवात्मा को भोग देह प्राप्त होता है, ये दो प्रकार का होता है, जिनके अच्छे पुण्य कर्म हैं उनको दिव्य देह की प्राप्ति होती है
जिससे स्वर्गादि उत्तम लोकों के भोग भोगे जाते हैं और जिनके पाप कर्म अधिक होते हैं यातना देह की प्राप्ति होती है जिससे नर्क की यातनाएं भोगी जाती हैं ।
देवयोनि के जीव: देव योनि में माता पिता के संयोग से देह प्राप्ति नहीं होती। चंद घडी में ही पुरे शरीर की रचना हो जाती है, देव शरीर में बचपन या बुढ़ापा नहीं होता हमेशा जवान रहते हैं कोई रोग नहीं होता, न ही पसीना आता है, शरीर से दिव्य सुगंध आती है और बहुत शक्ति सम्पन्न होते हैं।
नारकीय जीव : चंद घडी में ही इनके भी पुरे शरीर की रचना हो जाती है, इनका मुँह छोटा पेट बड़ा, नारकीय जीवों को भी बिना माता पिता के संयोग के यातना देह मिलता है जो की सिर्फ यातना भोगने के लिए होता है । इनको हमेशा पीड़ा ही पीड़ा रहती है भयंकर शीत, ताप दुर्गन्ध आदि सहने पड़ते हैं और एक छण का भी चैन नहीं मिलता ।
केवल मनुष्य ही मृत्योपरांत यमलोक ले जाया जाता है अन्य कोई प्राणी नहीं
केवलं तु मनुष्याणां मृत्युकाल उपस्थिते ।। २
याम्यैर्नरैर्मनुष्याणां तच्छरीरं भृगूत्तम। नीयते याम्यमार्गेण नान्येषां प्राणिनां द्विज।। विष्णुधर्मोत्तर पुराण २।११३।२-३ अग्नि ३६६/३५
यह तथ्य उल्लेखनीय और ध्यान में रखने योग्य है कि केवल मनुष्य ही मृत्यु के पश्चात् एक ‘आतिवाहिक’ सूक्ष्म (अतीन्द्रिय) शरीर धारण करते हैं और उन्हीं के इस शरीर को यम-पुरुषों के याम्यपथ से यमराज के पास ले जाया जाता है। अन्य प्राणियों के शरीर को नहीं, क्योंकि अन्य प्राणी तत्काल दूसरी योनि में जन्म पा जाते हैं—
तेन भुङ्क्ते स कृच्छ्राणि पापकर्ता नरो भृशम्। सुखानि धार्मिको हृष्ट इह नीतो यमक्षये ।।ब्रह्म पुराण 214 । 31 ।
इस सूक्ष्म शरीर से ही पापकर्म करने वाला मनुष्य याम्य मार्ग की यातनाएँ भोगते हुए यमराज के पास पहुँचता है, जब कि धार्मिक जन प्रसन्नता पूर्वक और सुख-भोग करते हुए धर्मराज के पास जाते हैं
पुण्यात्माएँ भी मृत्योपरांत यमलोक में धर्मराज की सभा से सम्मानित होते हुए जाती हैं।
मनुष्याः प्रतिपद्यन्ते स्वर्गं नरकमेव वा । नैवान्ये प्राणिनः केचित् सर्वं ते फलभोगिनः। ।
शुभानामशुभानां वा कर्मणां भृगुनन्दन। सञ्चयः क्रियते लोके मनुष्यैरेव केवलम्।।
तस्मान् मनुष्यस्तु मृतो यमलोकं प्रपद्यते । नान्यः प्राणी महाभाग फलयोनौ व्यवस्थितः।। विष्णुधर्मोत्तर पुराण २।११३।४-६
अपने शुभ और अशुभ कर्म का अच्छा-बुरा परिणाम भी केवल मनुष्य को ही इहलोक में और परलोक में भी भोगना पड़ता है। अपने शुभ अथवा अशुभ कर्मों के फलस्वरूप केवल मनुष्य को ही स्वर्ग या नरक भोगना पड़ता है, अन्य प्राणियों को नहीं। शुभ अथवा अशुभ कर्मों का सञ्चय भी केवल मनुष्य ही करते हैं अर्थात् केवल मनुष्यों के ही शुभाशुभ कर्मों का पाप-पुण्य सञ्चित होता रहता है। अत: मात्र मनुष्य ही अपने कर्मों के फलभोग हेतु यमलोक में जाते हैं अन्य योनियों के प्राणी वहाँ नहीं जाते, क्योंकि वे तो मनुष्य योनि में किये गये अपने कर्मों का फल ही तत्तत् योनियों में जन्म लेकर भोगते हैं—
ये नियोगांश्च शास्त्रोक्तान् धर्माधर्मविमिश्रितान्। पालयन्तीह ये वैश्य! न ते यान्ति यमालयम् ।। पद्म पुराण ३ । ३१।३६ ।
किन्तु मृत्यु के पश्चात् सभी मनुष्यों के लिए यमलोक में जाना अनिवार्य नहीं है। केवल पापात्मा ही वहां ले जाये जाते हैं। पुण्यात्माओं को भगवान् विष्णु के पार्षद स्वयं आकर अपने साथ ले जाते हैं और वे मार्ग में धर्मराज की सभा में होते हुए उनके द्वारा सम्मानित होकर स्वर्ग-लोक अथवा वैकुण्ठ लोक को जाते हैं।
आत्मज्ञः शौचवान् दान्तस्तपस्वी विजितेन्द्रियः ।
धर्मकृद् वेदविद्यावित् सात्त्विको देवयोनिताम् ।। याज्ञवल्क्यस्मृति ३।१३७
मृत्यु के पश्चात् सत्पुरुष अपने कर्मानुसार स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। याज्ञवल्क्य ऋषि ने कहा है कि आत्मज्ञ, शौचाचार के नियमों का पालन करने वाला, दान्त (आत्मसंयम वाला), तपस्वी, जितेन्द्रिय, धर्म-कर्म करने वाला, वेदविद्या का ज्ञाता और सात्त्विक प्रवृत्ति का मनुष्य देव योनि को प्राप्त करता है ।
मानसिक, वाचिक और कायिक तीन तरह के पाप
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसाऽनिष्टचिन्तनम्। वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ।।५ पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्।।६II
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः। परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्।। -मनु १२/५-७; नारद उ० ४३/६१-६३; द्र० अनु० पर्व १३/१-६; स्कन्द १/२/४१/१६-२१;
पापकर्म का जो फल मनुष्य को अगले जन्म में भोगना पड़ता है, उसके विषय में नास्तिकों और पापियों के मन में सन्देह रहता है। अत: उनके सन्देह को दूर करने के लिए धर्मग्रन्थों में कर्मविपाक के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
मनुष्य के पाप कर्मों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है-मानसिक, वाचिक और कायिक। मानसिक पापकर्म में पराये धन को पाने की इच्छा करना, दूसरे के अनिष्ट की कामना और वितथाभिनिभेश (किसी वस्तु के विषय में निरर्थक उत्सुकता या आग्रह की भावना) ये तीन मानस पाप हैं। कठोर वचन बोलना, अनृत बोलना, चुगली करना और अप्रासंगिक एवं असम्बद्ध बातें करना- ये चार प्रकार के मानस पाप हैं। धन का चोरी से या बलात् अपहरण, हिंसा और परस्त्री गमन ये तीन कायिक(शारीरिक) पापकर्म हैं ।
मानसिक, वाचिक और कायिक पाप और उसके फल
शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः । वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्। मनु १२/६
अन्त्य-पक्षि-स्थावरतां मनोवाक्कायकर्मजैः । दोषैः प्रयाति जीवोऽयं भवं योनिशतेषु च।।
याज्ञवल्क्यस्मृति ३।१३१
शारीरिक पापकर्म के प्रभाव से मनुष्य नरक भोगने के पश्चात् पुनर्जन्म में स्थावर (वृक्ष-लता आदि) की योनि में जन्म पाता है, वाचिक पापकर्म के फलस्वरूप पशु-पक्षियों की योनि में जाता है और मानसिक पापकर्म के फलस्वरूप अगले जन्म में अन्त्यज योनियों में जन्म पाता है –
इस विषय में विशेष विवरण याज्ञवल्क्य स्मृति ६/१३४- १३६ तथा पुराणों में देखा जा सकता है। किस पाप के परिणाम स्वरूप किस योनि में जन्म हो सकता है, इस विषय में मनुस्मृति १२।३६-७४, याज्ञवल्क्यस्मृति ३।१३२-१४०, मार्कण्डेयपुराण १५ ।१–३६, ब्रह्मपुराण २१७।३२-११२ स्कन्दपुराण १।२।५१।४-३२, पद्मपुराण तथा शातातप स्मृति १-५ अध्याय आदि में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। १. किन्त्वत्र नास्तिकाः पापाः सन्दिह्यन्तेऽल्पचेतनाः। तेषां निःसंशयकृते वद कर्मफलं हि यत्।। स्कन्द १/२/५१/२/
सत्कर्म करें, धर्मपरायण रहे, पाप कर्मों से बचें, अपना इहलोक और परलोक दोनों सार्थक करें !
जो पुण्यात्माएँ हैं उनको अपने-अपने सत्कर्मानुरूप दिव्य-लोकों की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य पापी अधर्मी, दुराचारी, निर्दयी, क्रूर और दुष्ट होते हैं, वे अपने दुष्कर्मों का दुष्परिणाम यमलोक के मार्ग में तो भोगते ही है पश्चात् वे नरक में यातना पाते हैं और तदनंतर नाना प्रकार की कुत्सित योनियों में जन्म प्राप्त करते हैं।
सत्कर्म करने वाला सदाचारी मनुष्य अपने धर्माचरण के प्रभाव से इस संसार में तो सुखी और यशस्वी रहता ही है और साथ ही परलोक में भी और अगले जन्म में भी वह सुखी रहता है। दुष्कर्म करने वाले पापी और अधर्मी मनुष्य इस लोक में भी निन्दित और दुःखी रहते हैं और मृत्यु के पश्चात् यमलोक की महायात्रा में भी वे दुःख पाते हैं उसके उपरान्त विभिन्न नरकों में कठोर यातनाएँ भोगने के पश्चात् नाना कष्टप्रद योनियों में पुनर्जन्म ग्रहण करते हैं प्रत्येक ‘मनुष्य को शुभाशुभ कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। कर्म उसका साथ नहीं छोड़ता। कर्म-फल मनुष्य के हमेशा साथ रहता हैं , यही पद्म पुराण में कहा गया हैं ।