
मोक्ष का साधारण अर्थ जो हम समझते हैं
मुक्ति, कैवल्य (सांख्य योग) निर्वाण (बौद्ध) निःश्रेयस (न्याय), अमृतत्व (उपनिषद) आदि मोक्ष के अनेक नाम हैं ।
मोक्ष या मुक्ति का साधारण अर्थ जो हम समझते हैं : सभी प्रकार के दुःखों, बंधनों, इक्षाओं और वासनाओं से छुटकारा पाना लेकिन यह एक पारिभाषिक दार्शनिक शब्द है जिसका अर्थ है सदा-सदा के लिए जन्म मरण (पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं) के दुःसह दुःखपूर्ण बंधन से मुक्त हो जाना ।
दूसरे शब्दों में मुक्ति या सभी दुःखों से निवृति तभी संभव है जब हमारा जन्म मरण का प्रवाह समाप्त हो जाये … इस परिभाषा के अनुसार मोक्ष सिर्फ तभी संभव है जब भगवान् की प्राप्ति हो जाये ।
मोक्ष क्यों समझ में नहीं आता आसानी से ?
1. क्योंकि मोक्ष के बारे में सभी वक्तव्य निम्नलिखित सरल (विद्वानों के लिए सरल) भाषा में होते है ।
“भारतीय दार्शनिक चिन्तन परम्परा में मोक्ष परम साध्य अवश्य रहा है, परन्तु मोक्ष के स्वरूप को लेकर उनमें मतैक्य नहीं है। कोई इसे ज्ञान की, चरमावस्था मानता है, तो कोई इसे सुख-दुःख से परे परमानन्द की अवस्था कहता है, कोई इसे भवचक्र से मुक्त अभयम्, अजरम्,, अमृत्युपदम् की अवस्था मानता है, तो कोई इसे कार्य-कारण श्रृंखला से मुक्त नित्य और सर्वव्यापक कहता है, तो कोई इसे पुद्गल विनाश मानता है, तो कोई इसे अनिर्वचनीय कहता है। इस मतवैभिन्य के बाद भी प्रायः सभी इस विचार से सहमत हैं कि मोक्ष की अवस्था ज्ञान की अवस्था है, जिसमें मानव को आध्यात्मिक, आधिभोतिक एवं आधिदैविक दुःखों से पूर्णतया मुक्ति मिल जाती ………”।
जब कोई विषय समझ नहीं आये या शंका या अविश्वास हो ….जैसे परलोक, स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्म इत्यादि तब शास्त्रों में लिखे वाक्यों को ही सत्य मान उसपर श्रद्धा करनी चाहिए । सर्वोपरि शास्त्रों का सार भगवान् की वाणी भगवत गीता है। दूसरा सबसे विश्वसनीय श्रीमद भागवत पुराण जो स्वयं भगवान ही हैं । तो हम भी शास्त्रीय वाणी / संत वाणी से ही मोक्ष समझेंगे।
2. मोक्ष न समझ में आने का, दूसरा कारण है श्रद्धा-विश्वास की कमी, शास्त्रों के बारे में अज्ञान, और कोई ऐसा द्रष्टान्त नहीं की मृत्यु के बाद किसी ने आकर बताया हो की उनको मोक्ष प्राप्ति हो गयी ।
एक प्रकार का मोक्ष ऐसा भी होता है !
आपका कोई अस्तित्व ही नहीं रहता ! अर्थात उदाहरण के लिए आप (की जीवात्मा) एक जल की बूंद हैं, और आपको समुद्र में डाल दिया जाए या मिला दिया जाए तो एक प्रकार का कैवल्य (एकत्व, सायुज्य ) मोक्ष हो गया आपको अब भगवान् के अलावा और कोई नहीं वापस अस्तित्व में नहीं ला सकता
क्या आप चाहेंगे की आपको यह मोक्ष प्राप्त हो जाए जिसमें आपका अस्तित्व ही न रहे, न शरीर, न इन्द्रियां ?

मृत्यु के उपरांत वाला मोक्ष चाहते है ? या जीवित रहते हुए मोक्ष की प्राप्ति ?
कामनाएं / इच्छाएं रहते हुए प्राण चले जाएँ तो “मृत्यु” हो गयी, फिर जन्म लेना पड़ेगा।
प्राण रहते सभी कामनाएं चली जायें “मुक्ति” हो गयी।
उदाहरण से समझें :
बाज़ार से सामान खरीदने गए और पैसे ख़त्म हो गए सामान सब नहीं खरीद पाए तो दुबारा बाजार आना पड़ेगा …(पुनर्जन्म लेना पड़ेगा), पैसे हैं पर कुछ लेना बाकी नहीं रहा तो बाजार दुबारा क्यों आना ?
जो इस जीवन में मुक्त नहीं होता वह मरने के बाद भी मुक्त नहीं होता। जो मनुष्य यह मानता है मुक्ति अभी नहीं मिली मरने के बाद मिलेगी वह स्वयं को धोखा देता है।
वैदिक दर्शन में मोक्ष
मोक्ष यानी बंधनों से छुटकारा, तो बंधन क्या है ?
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं–
जन्म मरण के चक्र को ही बंधन कहते हैं। हम बार-बार जन्म लेते हैं और बार-बार मरते हैं , या अगर ये कहें की हम जन्म लेते हैं मरने के लिए और मरते हैं फिर से जन्म लेने के लिए तो बिलकुल सत्य होगा, भगवत गीता में भगवान् के वचन हैं-
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । (2/27) – अर्थात जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है, और मरे हुए का जन्म निश्चित है
जन्म मरण के चक्र से छुटकारा भगवान् की कृपा से ही मिल सकता है…
मनुष्य जीवन का लक्ष्य ?- चार पुरुषार्थ
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
मनुष्य जब फल की इच्छा से कोई कर्म करता है तो उसे पुरुषार्थ कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं। इन चारों पुरुषार्थों के मूल में धर्म है । शास्त्रों में मोक्ष प्राप्ति मनुष्य का परम लक्ष्य माना गया है , इसी कारण से मोक्ष को परम पुरुषार्थ कहा गया है ।
चार पुरुषार्थों (धर्म अर्थ काम मोक्ष) को दो भाग में विभक्त किया है, पहला धर्म और अर्थ एवं दूसरा काम और मोक्ष।
काम का अर्थ है सांसारिक सुख की कामनाएं और मोक्ष का अर्थ है सांसारिक कामनाओं बंधनो और दुःख से मुक्ति
इन दो पुरुषार्थों काम और मोक्ष को प्राप्त करने के साधन हैं धर्म और अर्थ
अर्थ से काम और धर्म से मोक्ष साधा जाता है , साथ ही धनोपार्जन भी धर्मानुकूल होकर ही करना चाहिए, अधर्म पूर्वक कमाए धन से कामनाएं नहीं पूर्ण होतीं
धर्म -चारों पुरुषार्थों के मूल में धर्म है सभी पुरुषार्थ धर्म पूर्वक करने पर ही साधे जा सकते हैं। धर्म पालन में वर्णानुसार धर्म पालन का भी महत्त्व है विशेषकर कलयुग में जहाँ लोगों को ज्ञान ही नहीं है की उनका क्या वर्ण है और उन्हें क्या करना चाहिए क्या नहीं। विदेशी शिक्षा पद्दति में पढाई लिखाई ने सभी संस्कारों और वर्ण-धर्म आदि ज्ञान को लुप्त कर दिया है।
अर्थ – भौतिक सुख समृद्धि को पाने के लिए धन का होना आवश्यक है , गृहस्थ धर्म में आने के पहले शास्त्रों में निर्देश है की सभी को वर्णानुसार धर्म पालन करते हुए धनोपार्जन की अच्छी व्यवस्था कर लेनी चाहिए , अर्थ से ही सभी भौतिक कामनाओं और परिवार के भरण-पोषण आदि आवश्यकताओं की सिद्धि संभव है।
काम – संसार के सभी सुख काम के अंतर्गत आते है, भगवान् के वचन है की कामनाएं ही भगवत प्राप्ति में मोक्ष प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है, कामनाएं ही बंधनों का कारण है। अगर पूरी हो जाएँ तो और लोभ बढ़ातीं है छणिक सुख प्राप्त होता है पर अंत में दुःख ही देतीं है , अगर नहीं पूरी हों तो क्रोध उत्पन्न होता है जिससे विवेक का नाश होता है और मनुष्य अधर्म पूर्वक आचरण करता है , नए बंधनों में पढता है ।
मोक्ष – मोह का क्षय होना ही मोक्ष है क्योंकि मोह ही बंधन का कारण है, और मोक्ष का शाब्दिक अर्थ मुक्ति.. अथवा बंधनों से मुक्ति है। मोह से, बंधनो से मुक्ति आसान नहीं है, बिना भगवान् की कृपा से मुक्ति नहीं मिलती इसीलिए मोक्ष प्राप्ति के इक्षुक मनुष्य को भगवान् की प्रसन्नता पाने और उनके प्रति प्रेम हो इसके लिए संघर्ष करना चाहिए साधन करना चाहिए , भगवान् की प्राप्ति हो गयी तो मोक्ष हो गया।
मोक्ष के प्रकार
मोक्ष प्राप्ति के शास्त्रों में कई प्रकार कहे गए है , मनुष्य सभी बंधनों दुखों से सदा सदा के लिए छुटकारा पा जाता है और अप्राकृत दिव्य देह प्राप्त कर भगवान् के लोक में निवास सुखपूर्वक निवास करता है। प्रेमी-भक्तों के लिए ४ प्रकार के मोक्ष हैं।
सालोक्य: भगवान् के लोक में निवास
सामीप्य : भगवान् की सन्निधि में निवास
स्राष्टी: भगवान् के लोक में उनके ही सामान ऐश्वर्य और निवास
सारूप्य: भगवान् के सामान रूप की प्राप्ति
एक मोक्ष जो “सायुज्य” कहलाता है उसमे भगवान् में विलीन हो जाते हैं यह कुछ ज्ञानी भक्तो को अभीष्ट होता है, सायुज्य मोक्ष में शरीर इन्द्रीओं से विहीन होने के कारण जीवात्मा का कोई अस्तित्व नहीं रहता
बिना इन शर्तों / नियमों के पूरा हुए मोक्ष नहीं मिलता
ü भगवान् के प्रति सम्पूर्ण शरणागति हो
ü वैराग्य सिद्ध हो गया हो
ü विद्या और अविद्या का भी सम्पूर्ण नाश होना आवश्यक है
ü अनंत जन्मों के असंख्य पाप और पुण्य सब भस्म हो गए हों
भक्तों को नहीं चाहिए होता कोई भी मोक्ष !
भक्तों को प्रिय- मोक्ष से भी अच्छा पांचवां पुरुषार्थ – भगवान् से प्रेम, भगवान की भक्ति, प्रेमानंद
कपिल भगवान् माता देवहुति को उपदेश में कह रहे हैं –
“सालोक्यसार्ष्टिसामीप्य सारूप्यैकत्वमप्युत । दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः” ॥३.२९.13॥
“मेरे प्रेमी भक्त ये पांच प्रकार की दुर्लभ मुक्ति- सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, स्राष्टी (भक्तों की मुक्ति ) और कैवल्य (ज्ञानियों की मुक्ति), दिए जाने पर भी नहीं लेते ।
अगर मुक्ति हो गयी तो भगवान् में लीन हो गए या उनके धाम में सदा के लिए चले गए और अगर मुक्ति नहीं हुई तो संसार में आना जाना लगा रहेगा, और संसार में आते जाते रहेंगे तो हो सकता है किसी जन्म में कोई अच्छे संत मिल जाएँ और हम उनके शरणागत हो जाएँ तो हो सकता है की हम भगवान् (श्री कृष्ण) का प्रेमानंद पा लें , लेकिन मुक्ति हो गयी तब तो हम सदा-सदा के लिए गए, फिर हमको कभी प्रेमानंद नहीं मिलेगा ।
भगवान् के भक्तों को मोक्ष नहीं चाहिए होता वो उनसे उनकी भक्ति, उनकी सेवा, उनके प्रति प्रेम मांगते हैं
कैसे पाएं भगवान् का प्रेम और भक्ति1
जीवनमें शान्ति भगवत्-प्राप्ति से ही हो सकती है एक और भगवत्प्राप्ति निष्काम कर्मके द्वारा चित्तकी शुद्धि, उपासनाके द्वारा चित्तकी एकाग्रता तथा ज्ञानके द्वारा, अज्ञानका नाश होनेपर ही हो सकती है। मन से भगवान्का साक्षात्कार होता है।
मन में तीन दोष हैं मल, विक्षेप और आवरण :
1. पहला दोष मनकी ‘मलिनता’ है.. जिसका कारण है – जन्म-जन्मान्तर, युग-युगान्तर, कल्प-कल्पान्तरमें किये गये शुभाशुभ कर्मों की वासना । मैले कपड़ेको साबुन या क्षारसे धोनेपर जैसे उसमें स्वच्छता आती है, ठीक वैसे ही मन के मलिन संस्कारोंको धोने के लिये शास्त्रविहित, निष्काम कर्म की आवश्यकता है।
2. मनका दूसरा दोष है – ‘विक्षेप’ अर्थात् चित्त की चञ्चलता । उसके दूर करनेका एकमात्र उपाय है-भगवान्की भक्ति । दूसरे शब्दोंमें भगवान्में प्रेम । प्रेम उसी वस्तु में उत्पन्न होता है, जिसके रूप और गुणों का ज्ञान हो । लौकिक पदार्थों में भी उनके रूप और गुणोंका ज्ञान होने पर ही प्रेम उत्पन्न होता है; इसी प्रकार भगवान् में प्रेम उत्पन्न करनेके लिये भगवान्के रूप और गुणोंका ज्ञान और आवश्यक है और भगवद्रूप तथा गुणोंके ज्ञान का साधन है— इतिहास-पुराणद्वारा भगवान्के पवित्र चरित्र का पान, श्रवण अथवा पठन। भगवान्के चरित्रका जितना ही की अधिक श्रवण अथवा पठन होगा, उतना ही अधिक भगवान में प्रेम बढ़ता चला जायगा। जैसे-जैसे प्रेम का बढ़ेगा, वैसे-वैसे ही भगवान्में मन भी लगने लगेगा।
3. मन का तीसरा दोष आवरण अर्थात अज्ञानता , हमारा ये समझना की हम शरीर हैं किसी के पुत्र हैं, किसी के पति किसी के पिता हैं यह भी आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा है, भगवान् के प्रेम प्राप्ति में बाधा है
रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रंथो का श्रवण, पठन ही एकमात्र सबसे सरल और उत्तम मार्ग है भगवान् के प्रेम की प्राप्ति, इसके बिना भक्ति नहीं हो सकती और बिना भगवत-भक्ति के चंचलता मिटती नहीं । इन साधनों से चित्त के एकाग्र हो जाने पर शांत मन में विषयों के प्रति आकर्षण / राग कम होता है, मोह का क्षय (मोह का क्षय ही मोक्ष है ) होता है, गुरु के, शास्त्रों के, वाक्यों में श्रद्धा- विश्वास उत्पन्न होता है, भगवान की प्रसन्नता प्राप्त होती है शाश्वत शांति और…
भगवान् का साक्षात्कार प्राप्त होता है ।
यही मनुष्य के जीवन का लक्ष्य है यही मोक्ष है, भगवान् की प्राप्ति ही मोक्ष है ।
सबसे अच्छा मोक्ष !