
पुनर्जन्म की सत्यता को समझने से पहले हमे कुछ प्रश्नो पर विचार करना आवश्यक है
- अगर मनुष्य एक ही बार जन्म लेता है और वर्तमान जन्म ही उसका पहला और आखिरी जन्म है तो सभी एक समान ही क्यों नहीं होते सभी एक समान सुख दुःख क्यों नहीं भोगते ? (नास्तिक का उत्तर हो सकता है की हर देश की जलवायु आदि अलग-अलग है इसलिए सब एक समान नहीं होते और परिस्थितियों और अपने कर्मों के अनुसार सब अलग-अलग सुख दुःख भोगते हैं)
- अगर मनुष्य का एक ही जन्म होता है तो क्यों कोई बड़े अमीर उद्द्योगपति घर में जन्मता है और ऐशो-आराम का जीवन जीता है और क्यों कोई सड़क किनारे भीख मांगने वाले के यहाँ जन्मता है दुःख भोगता है , अगर आप पुनर्जन्म नहीं मानते तो इसका क्या उत्तर होगा ? भाग्य ? लेकिन भाग्य तो कर्मो के अनुसार होता है और नवजात शिशु ने तो कोई कर्म अभी किए ही नहीं ?… और ये तो अन्याय हुआ की बिना किसी कारण से कोई जन्म से ही सुख भोग करे और कोई जन्म से ही कष्ट भोगे
- कई मनुष्य जन्म से ही अपंग क्यों होते हैं , जन्म से ही गूंगे बहरे क्यों होते हैं ? (नास्तिक उत्तर हो सकता है की पिता का दूषित शुक्र कारण हो सकता है, अगर ऐसा है तो उसी पुरुष की दूसरी संतान भी है जो बिलकुल स्वस्थ हुई ?)
- अगर वर्तमान जन्म ही हमारा पहला और आखिरी जन्म है तो हमारे जितने भी अच्छे और बुरे कर्म हैं उनका फल हमे मृत्यु के पहले मिल जाता है क्या ? अगर मिल जाता है तो हमारे पास बहुत उदाहरण हैं जो पूरी जिंदगी बड़े-बड़े अपराध करने वाले ऐशों आराम के साथ बिना किसी सजा के मृत्यु को प्राप्त हो गए तो उनको तो उनके कुकर्मों की सजा मिली ही नहीं ? बहुत से ऐसे महात्मा हैं जो सारे जीवन अच्छे कर्म करते रहे और फिर भी बहुत कठिन जीवन जिया और मृत्यु को प्राप्त हुए पर किसी ने उनके सत्कर्मों का उनको अच्छा फल मिलते नहीं देखा …अगर हम पुनर्जन्म सिद्धांत नहीं मानते तो इसका क्या उत्तर देंगे, क्या बुरे कर्म करने वाला बिना सजा भोगे ख़त्म हो गया तो वो बच गया? और अच्छे कर्म करने वाला बिना अच्छा फल भोगे मृत्यु को प्राप्त हो गया तो क्या उसके अच्छे कर्म व्यर्थ हो गए ? … इसका अर्थ तो ये हुआ की अगर कोई पुनर्जन्म नहीं होता तो सभी अपनी इक्छा अनुसार जीवन जियें न अच्छे कर्म करने का कोई फायदा न बुरे कर्म करने का कोई नुकसान
संस्कृत में एक कहावत है “नास्ति चेन्नास्ति नो हानिरस्ति चेन्नास्तिको हतः ।”
आस्तिक कहता है—‘अभी अच्छे-अच्छे कर्म करो; ये क्योंकि इस जन्मके बाद दूसरा जन्म भी रहेगा, उस समय ये अच्छे कर्म काम आयेंगे।’ नास्तिक बोलता है- ‘कौन निश्चित रूप से यह कह सकता है, इस जन्म के बाद भी हम पुनर्जन्म लेंगे। अतः क्यों ऐसा करें?’ पर यह सामान्य ज्ञान से समझने की बात है की हम अच्छे कर्मों का संचय करेंगे तो उनसे लाभ ही मिलेगा कुछ भौतिक वस्तु का या धन आदि का लाभ न भी मिले कम से कम आंतरिक प्रसन्नता तो मिलती ही है, अगर हम आस्तिक हैं हमने सत्कर्म किये हैं तो हमारा अगल जन्म होगा तो हमे लाभ मिलेगा अगर नहीं है तो कोई नुक्सान तो नहीं क्योंकि कुछ बुरे कर्म किये ही नहीं । लेकिन नास्तिक को जिसने सत्कर्म नहीं किये बल्कि बुरे कर्म संचित किए, अगर पुनर्जन्म हुआ तो उसकी तो बहुत हानि होगी ।
अपने अनुभव में आसपास हमने बहुत बार देखा है की बहुत अच्छा व्यक्ति जिसने कोई गलत काम नहीं किए तब भी वह भयंकर कष्ट भोग रहा है , कई संत महात्मा भी हम जानते हैं जिन्हे बहुत कष्टदायी रोग हुए ….ये सब वर्तमान जन्म के कर्म के कारण नहीं बल्कि पूर्व जन्मो के कर्मों के कारण ही होता है ।
जिन मतों / पंथो में पुनर्जन्म नहीं मानते ?
कुछ मतों और पंथो में पुनर्जन्म (जन्मान्तर) को नहीं माना जाता है लेकिन किसी दूसरे रूप में वे पुनर्जन्म की ही वकालत करते हैं , अर्थात देहांत के उपरांत भगवान या ईश्वर निर्णय करते हैं की मृत व्यक्ति को स्वर्ग या नर्क कहाँ भेजा जाए . जिसका अर्थ यही हुआ की उसके जो कर्म जिस शरीर से किये गए जो अब मृत है उसके उस शरीर से किये कर्मों का फल उसे स्वर्ग या नर्क में भोगना पड़ता है … यही पुनर्जन्म है
हमारे सभी शास्त्र पुनर्जन्म के सिद्धांत का समर्थन करते हैं
पुनर्जन्मका का वास्तविक अर्थ ! पुनर्जन्म के सनातन सिद्धांत !
सनातन धर्म दर्शन इसे शरीर के अंत के बाद आत्मा इस शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरणमात्र-
कहता है। भगवद्गीतामें भगवान् कहते हैं :
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ (२। २२)
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने
शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।’ इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आत्मा शरीरकी अपेक्षा एक स्थायी तत्त्व है, जो एक अस्थायी आवाससे दूसरे अस्थायी आवासमें अपना स्थानान्तरण करता रहता है । पूर्वजन्मोंमें किये गये कर्मोंके परिणामोंपर ही आत्माके नये शरीर का निर्णय आधारित होगा (नए शरीर से तात्पर्य है की पशु पक्षी या पेड़ पौधे इत्यादि का शरीर भी कर्म फल अनुसार मिल सकता है जरुरी नहीं मनुष्य शरीर ही मिले) ।
कठोपनिषद का नचिकेता उपाख्यान तो सबसे बड़ा प्रमाण है, यमराज और नचिकेता संवाद बहुत ही महत्वपूर्ण है, यमराज ने नचिकेता पर प्रसन्न होकर तीन वर मांगने के लिए कहा , नचिकेता ने तीसरे वर में यमराज से इस विषय पर प्रश्न किया की :
मरे हुए मनुष्य के विषय में जो ये शंका है की कोई तो कहते हैं की मरने के अनन्तर “आत्मा रहता है” और कोई कहते हैं “नहीं रहता ” इस सम्बन्ध में आपसे उपदेश चाहता हूँ, जिससे मै इस विषय का ज्ञान प्राप्त कर सकूँ ।
यमराज ने पहले परीक्षा ली की नचिकेता इस ज्ञान के अधिकारी हैं की नहीं , मनुष्य लोक के बड़े बड़े प्रलोभन दिए की इस रहस्य को न मांगकर नचिकेता कुछ भी और मांग लें , लेकिन नचिकेता अटल रहे , इस दॄढ भाव पर प्रसन्न हुए यमराज ने फिर उनसे कहा
न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम् ।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ।।
जो मुर्ख धन के मोह से अंधे होकर प्रमाद में लगे रहते हैं, उन्हें परलोक का साधन नहीं सूझता, यही लोक है, परलोक नहीं है – ऐसा मानने वाला मनुष्य बारम्बार मेरे चंगुल में फंसता है (जन्मता और मरता है)
इसके पश्चात् यमराज उसे आत्माके स्वरूपके सम्बन्धमें उपदेश देते हुए कहते हैं-
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ (१ । २ । १८)
यह नित्य चिन्मय आत्मा न जन्मता है, न मरता है; यह न तो किसी वस्तुसे उत्पन्न हुआ है और न स्वयं ही कुछ बना है (अर्थात् न तो यह किसीका कार्य है, न कारण है; न विकार है, न विकारी है) । यह अजन्मा, नित्य (सदासे वर्तमान अनादि), शाश्वत (सदा रहनेवाला, अनन्त) और पुरातन है तथा शरीरके विनाश किये जानेपर भी नष्ट नहीं होता ।’ उपर्युक्त वर्णनसे आत्माकी अमरता सिद्ध होती है। आगे चलकर यमराज उन मनुष्योंकी गति बतलाते हैं, जो आत्माको बिना जाने हुए ही मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं –
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्॥ (२।२।७)
अपने कर्म और ज्ञानके अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करनेके लिये किसी देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट पतंगा आदि योनिको प्राप्त होते हैं और कितने ही स्थावर भाव (वृक्षादि योनि) को प्राप्त होते हैं ।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (गीता २। २७)
जन्म और मृत्युका रहस्य अत्यन्त गूढ़ है। वेदोंमें , दर्शन-शास्त्रों में, उपनिषदोंमें तथा पुराणों में ऋषियोंने इस विषयपर विस्तृत विचार किया है। गीता के उपर्युक्त श्लोकसे यह ज्ञात होता है कि जन्म लेनेवालों की मृत्यु और मरनेवालों का जन्म अवश्य होता है। भगवान् ने स्वयं इन दोनों को ध्रुव-सत्य बतलाया है।
मनुष्य अपने पाप का फल अकेला ही भोगता है (महर्षि उत्तङ्क)
अन्तकाल में मनुष्य सबको छोड़कर अकेला ही परलोक की यात्रा करता है। मेरी माता, मेरे पिता, मेरी पत्नी, मेरे पुत्र और मेरी वस्तु-इस प्रकारकी ममता प्राणियों को व्यर्थ पीड़ा देती रहती है। पुरुष जबतक धन कमाता है, तभीतक भाई-बन्धु उससे सम्बन्ध रखते हैं, परंतु इहलोक और परलोकमें केवल धर्म और अधर्म ही सदा उसके साथ रहते हैं, वहाँ दूसरा कोई साथी नहीं है। धर्म और अधर्मसे कमाये हुए धनके द्वारा जिसने जिन लोगोंका पालन-पोषण किया है, वे ही मरनेपर उसे आग के मुख में झोंककर स्वयं घी मिलाया हुआ अन्न खाते हैं। पापी मनुष्योंकी कामना रोज बढ़ती है और पुण्यात्मा पुरुषों की कामना प्रतिदिन क्षीण होती है। मनुष्य के कमाये हुए सम्पूर्ण धनको सदा सब भाई-बन्धु भोगते हैं, किंतु वह मूर्ख अपने पापोंका फल स्वयं अकेला ही भोगता है।1
जब तक हमारे कर्म (अच्छे या बुरे दोनों ) रहेंगे तब तक मुक्ति नहीं मिलेगी
अच्छे और बुरे दोनों ही कर्म सिर्फ भोगने पर ही नष्ट होते हैं इसलिए कर्म बहुत जन्मों के इकट्ठे हैं वो कभी ख़त्म होंगे नहीं, तो कभी मुक्ति मिलेगी नहीं अर्थात बार-बार हम जन्म लेते रहेंगे और मृत्यु को प्राप्त होते रहेंगे पुनर्जन्म होता रहेगा !
संछिप्त में समझें की कर्म क्यों कभी नष्ट नहीं होते जिसके कारण मनुष्य को बार बार जन्म लेना पड़ता है हमारे करोड़ों अरबों मनुष्य जन्म हो चुके हैं और हर जन्म के असंख्य कर्म जमा हैं जिन्हें संचित कर्म कहते हैं , संचित कर्मो से कुछ कर्मों का फल भोगने के लिए भगवान् की प्रेणना और कृपा से हमको यह वर्तमान शरीर प्राप्त हुआ है, अर्थात वर्तमान शरीर हमको जिन थोड़े से (अरबों जन्मों के असंख्य कर्मों में थोड़े से) संचित कर्मो को भोगने के लिए मिला है उसी को प्रारभ्ध कहा जाता है हमारा शरीर जब पूर्व निष्चित प्रारभ्ध भोग लेता है तो मृत्यु होती है और फिर पुनर्जन्म होता है नए प्रारब्ध के साथ (अगर मनुष्य जन्म मिला तो क्योंकि कर्म करने का अधिकार सिर्फ मनुष्य योनि में ही है बाकी सभी योनि पशु पक्षी वृक्ष आदि सब भोग योनि हैं जिसमे उन्हें कोई कर्म करने की स्वतंत्रता नहीं वो लगभग १०० प्रतिशत प्रारब्ध के अधीन हैं , लेकिन मनुष्य नए कर्म करके नए प्रारब्ध का निर्माण कर सकता है)
आइये कर्मो को दूसरे शब्दों में समझें 2
कर्म तीन प्रकारके हैं—क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध । जो नये कर्म कामना-अहंकार से किये जाते हैं, वे ‘क्रियमाण’ हैं; वे संचित में चले जाते हैं, जो अनन्त जन्मों के अच्छे-बुरे कर्म फल बिना भुगताये पड़े हैं और जिनमें नये कर्म जमा हो रहे हैं। उस संचित कर्म-राशि में से एक जन्म में फल भुगताने के लिये जो कर्म पृथक् हो जाते हैं और जन्मसे पहले ही जिनका फल निर्माण हो जाता है, उन फलदानोन्मुख कर्मों को ‘प्रारब्ध’ कहते हैं। जबतक नये कर्म बनते रहते हैं और जबतक संचित कर्मों का नाश नहीं हो जाता, तबतक जीव बन्धन-मुक्त नहीं हो सकता; उसे कर्मफल-भोगके लिये बार-बार सत्-असत् योनियों में जन्म धारण करना और स्वर्ग-नरकादि लोकों में जाना-आना पड़ता ही है। अहंकार, कामना न रहनेपर नवीन कर्म संचित में नहीं जाते और ज्ञानकी अग्नि अथवा भगवान् की शरणागति से संचित की कर्मराशि जल जाती है, तब जीव मुक्त हो जाता है, अतएव अहंकार-कामना का त्याग करके भगवच्छरणागतिपूर्वक सब कुछ भगवान् ही है, ऐसा समझते हुए भजन करना चाहिये। मनुष्य-जीवन का यही चरम और परम ध्येय है।
References:
1. Kalyan, Parlok evum punarjanm ank, geeta press, page 383.
2. Kalyan Parlok evum punarjanm ank, geeta press, page 151