
राम जी के अनेक भक्तों, संतों, ऋषियों, ने देश- विदेश में, विभिन्न कालों में अनेक रामायण ग्रंथों की रचना की है

इस लेख भाग १ में किन रामायण ग्रंथों के बारे में चर्चा है
• पूरे विश्व में कितनी रामायण हैं उसकी गणना करना बहुत कठिन है क्योंकि सभी देशों में और भारत में सभी प्रदेशों में रामायण की उनकी स्थानीय भाषा में संस्करण उपलब्ध हैं जो की किसी भक्त ने अनुवाद किये हैं।
• इस लेख में जिन प्रसिद्ध रामायण ग्रंथो के बारे में उल्लेख है वे सभी आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध हैं। कुछ स्थानीय भाषा की रामायण के रचनाकार महाकवि हैं , कुछ ऋषि और कुछ विद्वान् विप्र ।
• जिन विभिन्न रामायणों में कुछ विशेष, रोचक, उपयोगी और ज्ञानवर्धक बातें हैं, अनसुनी कथाएं हैं, इस लेख में उन्हीं ग्रंथों की चर्चा हैं ।
• यह लेख भाग १ है इसमें भुशुण्डि रामायण और आध्यात्म रामायण में क्या विशेष है, जानेंगे
भुशुण्डि रामायण

• अब तक प्राप्त विभिन्न रामायण ग्रंथों में भुशुण्डि रामायण सबसे अधिक विस्तृत है, सबसे प्राचीन रामायणों में से एक है।
• जो संस्कृत हस्तलेख प्राप्त हैं उनमें दो नाम और भी दिए हैं भुशुण्डि रामायण के, ब्रह्म रामायण और आदि रामायण। ब्रह्मा जी ने भुशुण्डि जी यह रामायण कथा को सुनाई इसलिए भुशुण्डि रामायण नाम से यह प्रसिद्द एवं प्रचलित है।
• रामचरितमानस और वाल्मीकि रामायण में जैसे बाल काण्ड, अयोध्या काण्ड, सुंदर कांड आदि हैं, भुशुण्डि रामायण में सम्पूर्ण कथा चार खण्डों में विभक्त है पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, और उत्तर खंड ।
भुशुण्डि रामायण – नाम क्यों ?
• ब्रह्मा जी और भुशुण्ड का संवाद ही भुशुण्डि रामायण है । काक (कौए ) के रूप में जिन परम ज्ञानी एवं राम भक्त काक भुशुण्डि जी, जिनके बारे में रामचरितमानस में कहा गया है ये भुशुण्डि वही हैं अथवा नहीं यह स्पष्ट नहीं है।
• भुशुण्ड लोमश ऋषि के शाप से (अपने गुरु से तर्क वितर्क करने के कारण) काक योनि में जन्मे थे परन्तु फिर राम-भक्ति और गुरु की ही करुणा से उन्हें ज्ञान न लुप्त होने का वरदान भी मिला। गोस्वामी तुलसीदास ने कथावाचक काक भुशुण्डि व् श्रोता गरुड़ जी का उल्लेख किया है रामचरितमानस में । जिसमें गरुड़ जी को भगवान् राम और लक्ष्मण जी को नागपाश से छुड़ाने के बाद भ्रम हुआ था उसके निवारण के लिए वे शंकर जी के पास गए, तब शंकर जी ने उन्हें काक भुशुण्डि जी के पास भेजा था ।
• ब्रह्म लोक में एक विशाल यज्ञ का आयोजन था, जहाँ सभी देव गण उपस्थित थे , उनके भुशुण्डि के बारे में जिज्ञासा प्रगट करने पर ब्रह्मा जी ने बताया*-
• कालकंटिका नामक अत्यंत भयकारिणी काल की बहन और सूर्य देव के संयोग से भुशुण्ड उत्पन्न हुए। काक का वेश धरने वाले वे महान योद्धा थे । ब्रह्मा से वरदान प्राप्त कर अजेय हुए काक भुशुण्ड ने त्रिभुवन को आतंकित कर दिया। परेशान देवताओं ने तब ब्रह्मा जी से ही उसके निराकरण की प्रार्थना की , तब ब्रह्मा जी स्वयं भुशुण्ड से मिलने पहुंचे।
• ब्रह्मा जी ने तरह-तरह से समझाया, भगवान् राम की महिमा बताकर यह भी कहा की, यह विश्व राम भक्तों को सुख देने के लिए रचा गया है , अगर भक्तजन, साधु दुखी होंगे तो रामजी कुपित होंगे …भुशुण्ड जी ने तब समझ कर ब्रह्मा जी से भगवान् राम चरित्र जानने के लिए निवेदन किया।
* यह भुशुण्ड वृतांत रामचरितमानस में नहीं है
भुशुण्डि रामायण की कुछ प्रमुख विशेषतायें
• विशाल ३६००० श्लोकों का ग्रन्थ और अभी तक अनेक शोधकर्ताओं को भुशुंडि रामायण के रचयिता कौन हैं नहीं पता पढ़ पाया
• बहुत अधिक ऐसे उदाहरण हैं की गोस्वामी तुलसीदास ने महाग्रंथ भुशुण्डि रामायण से प्रभावित हो, रामचरित मानस में अनेको प्रसंगो को विवेक पूर्वक ग्रहण किया ! हालांकि, भुशुण्डि रामायण में माधुर्य भाव की प्रधानता है जबकि रामचरितमानस में ऐश्वर्याश्रित राम-भक्ति, दास्य भाव को अधिक महत्व दिया गया है ।
• सरयू नदी किस प्रकार उत्पन्न हुई, उनका आध्यात्मिक महत्व पर बहुत विस्तृत वर्णन मिलता है, जो अन्य रामायणों में नहीं मिलता
• राम जी को युवराज पद दे सभी कार्य भर सौंप कर महाराज दशरथ रानी केकई, और ऋषि मुनियों के साथ पृथ्वी के सभी तीर्थों के दर्शनों के लिए जाते हैं । दशरथ जी की तीर्थ यात्रा का वर्णन पूर्व खंड में ४७ अध्यायों में लिखा है और किसी रामायण में इतना विस्तृत यह प्रसंग नहीं मिलता, विश्व के सभी तीर्थ स्थल और उनके महात्म्य का अति उत्तम उल्लेख भुशुण्डि रामायण की मुख्य विशेषताओं में से एक है।
• राम जी की पादुका कवच और पादुका के द्वारा राज्य व्यवस्था का सञ्चालन भी भुशुण्डि रामायण में विशेष है और कई अनसुनी कथाएं भी हैं जिनमें पादुकाओं ने अयोध्या वासिओं को प्राकृतिक विपत्तियों से और आक्रमणकारियों से बचाया।
भुशुण्डि रामायण की कुछ अनसुनी कथाएं
बालक राम का सरयू तटस्थ गोप प्रदेश में निवास और रावण द्वारा उनकी हत्या का प्रयास-
राम के अयोध्या में अवतरित होने के बाद देवर्षि नारद लंका गये और रावण से बोले, “देवताओं की प्रार्थना से तुम्हारा नाश-कर्ता उत्पन्न हो गया है। उससे बचने का शीघ्र उपाय करो नहीं तो शत्रु के बड़े हो जाने पर आत्मरक्षा के तुम्हारे सारे प्रयत्न व्यर्थ हो जायेंगे” इतना कहकर वे ब्रह्मलोक चले गये। रावण इस संवाद से पहले तो अत्यन्त भयभीत हुआ, फिर सारी परिस्थिति पर गम्भीरता पूर्वक विचार करके बोला, “मैं शिव के चरणों पर शीश चढ़ाकर उनके प्रसाद से असीम शक्ति प्राप्त करूँगा। तब वैष्णवों का मूलोच्छेद करूँगा और देवताओं का सर्वनाश कर उन्हें स्वर्ग से निकाल बाहर करूँगा। देखें विष्णु क्या कर लेते हैं ?” अपनी इस योजना को तत्काल कार्यान्वित करने के लिए उसने राक्षस सेनापतियों को आदेश दिया। उनके अत्याचार से सारा विश्व काँपने लगा। देवता स्वर्ग से भागकर गिरि-कन्दराओं में जा छिपे, कुछ महाराज दशरथ के पास आये और संवाद सुनाया।
वृद्धावस्था में प्राप्त चारों पुत्रों की सुरक्षा के लिये वे व्यग्र हो उठे। अयोध्या में पुत्रों की रक्षा कदाचित् ही हो सके, यह सोचकर उन्होंने गुप्त रूप से चारों बालकों को सरयू पार कामिका वन में सुखित गोप के घर भेज दिया। उसकी स्त्री मांगल्या उनका बड़े स्नेह से पालन-पोषण करने लगी। वे गोप बालकों के साथ गायें चराते हुए नाना प्रकार की मनोमुग्धकारी क्रीड़ाएँ करते थे। रावण को किसी प्रकार इसका पता चल गया। उसने उन्हें मारने के लिए छद्मवेशधारी अनेक राक्षस भेजे किन्तु राम ने उन सबका वध कर डाला। इन्हीं दिनों एक बार दशरथ ने विष्णुयज्ञ का अयोजन किया। उससे अपनी अवमानना समझ कर इन्द्र कुपित हो गए और भीषण वर्षा करवा कर आयोध्या को बहा देने का संकल्प किया, राम ने मेघावरोधक छत्र धारण कर साकेत पुरी और उससे संलग्न गोप्रदेश की रक्षा की । वयस्क होने पर चारों भाई गोपप्रदेश से आयोध्या आ गए ।
Ref: भुशुण्डि रामायण (श्रीमद आदि रामायण): अनुवादक -विद्याभास्कर आचार्य पंडित जटाशंकर दीक्षित “शास्त्री”, भुवन वाणी ट्रस्ट, मौसमबाग (सीतापुर रोड) लखनऊ -२२६०२०, के लिए विनय कुमार अवस्थी द्वारा प्रकाशित।
रामगीता महोपाख्यान-
भुशुण्डि रामायण में रामगीता पूर्वखण्ड में है । इसके अन्तर्गत ब्रह्म राम द्वारा गोपियों को दिये गये भक्तिज्ञानोपदेश रखे गये हैं। प्रसंग इस प्रकार है- परात्पर ब्रह्म की अवतारलीला के रसास्वादन के निमित्त १६ हजार दण्डकारण्यवासी मुनियों ने पूर्व योजनानुसार ब्रजप्रदेश में गोपीरूप में जन्म लिया था। उन्होंने राम को वर रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तप किया। उनमें नन्दन और राजिनी की पुत्री सहजानन्दिनी सर्वप्रधान थीं। गोपियों की निष्ठा से प्रसन्न होकर राम ने कहा, मैं एक पत्नीव्रत हूँ, अत: तुम लोग सीता की आराधना करके उनके अंशरूप में ही मुझे प्राप्त कर सकती हो।’ उन लोगों अनन्य भाव से सीता की आराधना कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। तब सीता की मध्यस्थता से उन्हें राम की प्रमोदवनलीला में प्रवेश का अधिकार मिला।
महारास आरम्भ हुआ। इस दिव्यरास का दर्शन करने के उद्देश्य से शिव कैलास से अयोध्या आये। किन्तु लीलायोजिका गोपिका ने अनजान में उनकी अवज्ञा कर दी। उससे रुष्ट होकर शिव ने उन्हें शाप दिया कि तुम लोग शीघ्र ही लीलाविहारी राम के वियोग दुःख से पीड़ित होगी। यह कहकर शिव राम के पास गये और उनकी भावपूर्ण स्तुति की। चलते हुए उन्होंने राम से उक्त शाप की बात कह दी और आश्रिताओं को उससे प्राप्त होनेवाले कष्ट के लिए उनसे क्षमा याचना करने लगे। राम ने कहा, ‘देवदेव ! तुम्हारा शाप मेरे अवतारकार्य की सिद्धि में सहायक होगा। अत: वह मेरी इच्छा के सर्वथा अनुकूल है।’ इसके अनन्तर वे गोपियों को सम्भावित वियोगजन्य दुःख से उद्धार का उपाय बताते हुए बोले, ‘तुम लोग प्रत्यक्ष सम्पर्क के अभाव में भी मुझसे सहज ही तादात्मय स्थापित कर सकती हो। प्रकृति-पुरुष सब मै ही हूँ। पूजा और ध्यान के द्वारा तुम मेरी नित्यलीला में अहर्निश लीन रह सकती हो। नित्यधाम परमानन्दमय है। उसमें प्रवेश का अधिकार साधक मात्र को है चाहे वे निर्गुणमार्गी सन्त हों या सगुणोपासक भक्त। यों तो पंच-भक्ति-भावों में से किसी भी एक का आलम्बन लेने से अक्षरधाम की प्राप्ति हो जाती है, किन्तु रासध्यान सर्वाधिक सुगम साधन है। मेरी लीला सहायिका षोडश प्रमुख सखियों का आश्रय ग्रहण करने से लीलाभेद तथा लीलारस का तत्त्वज्ञान सहज सुलभ हो जाता है। उनके द्वारा साधना के विभिन्न अंगों एवं स्तरों का भी परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।’ रामगीता के इन तत्त्वपूर्ण उपदेशों से गोपियों के मानसनेत्र खुल गये और भावी वियोग से उत्पन्न उनकी चिन्ता दूर हो गयी। (भु० रा०, पूर्वखण्ड, अध्याय ४४ से ५९ तक)
सीता-जन्मकथा
मिथिला नरेश जनक की पत्नी सुनयना ने परम पुरुष की नित्यसंगिनी सीता को पुत्री रूप में प्राप्त करने के लिये महालक्ष्मी की उपासना की। इसके फलस्वरूप स्वयं महालक्ष्मी चतुर्धा होकर चार पुत्रियों के रूप में वैशाख मास के शुक्लपक्ष में नवमी को अवतरित हुई। सुवर्ण हल के द्वारा यज्ञवेदी के जोते जाने पर उसमें से निकले स्वर्णकलश से सीता नवधाराओं (त्रिगुणा, कमलेशी, गण्डकी, अद्यवारिणी, द्युम्ना, घोषवती, वनघोषा, स्वयंलक्ष्मी और कौशिकी) में उत्पन्न हुई। उन्हीं के साथ उर्मिला, माण्डवी, श्रुतिकीर्ति का भी आविर्भाव हुआ। सीता और उर्मिला मध्य में स्थित थीं। माण्डवी सीता के बायें तथा श्रुतिकीर्ति दायें भाग में विराजमान थीं। महाराज जनक के घर पुत्रियों की उत्पत्ति का समाचार पाकर मुनि लोग एकत्र हुये। उस समय पृथ्वी ने साक्षात् उपस्थित होकर जनक से सीता का परिचय देते हुए कहा, ‘ये स्वयं महालक्ष्मी हैं, जो चतुर्धा होकर आपके घर अवतरित हुई हैं। इनका नाम सीता है। मैं इन्हें आपको प्रदान करती हूँ। आप इनकी रक्षा करें। ये रसिकेन्द्र पुरुषोत्तम राम की प्रिया हैं।’ इतना कहकर पृथ्वी अन्तर्धान हो गयीं।
सीता के साथ उत्पन्न धारारूप नव सखियों ने राजा जनक को अपना परिचय दिया। त्रिगुणा ने बताया मैं सीता की नित्य सखी हूँ। जैसे आप इनके पिता हैं वैसे मेरे भी। कमलेशी ने कहा, ‘मैं मन्दराचल की कन्या कमलेशी हूँ और इनकी नित्य सखी हूँ। आप मेरे पिता हैं।’ गण्डकी ने कहा, ‘शालग्राम के शिलाक्षेत्र में जो गण्डकी महानदी है, मैं वहीं हूँ और सहजा (सीता) की नित्य सखी होने के कारण आपकी पुत्री हूँ।’ अद्यवारिणी ने कहा, ‘मैं सीता की सखी अद्यवारिणी नदी हूँ, आप मेरे पिता हैं।’ द्युम्ना ने कहा, ‘मैं सीता की परासखी द्युम्ना नदी हूँ, आप मेरे पिता हैं।’ घोषवती ने बताया, मैं तपन पर्वत पुत्री घोषवती नदी हूँ। सीता की नित्य सखी होने के कारण आप मेरे पिता हैं।’ वनघोषा ने कहा, ‘मैं उत्तर शैल की पुत्री वनघोषा नदी हूँ।’ लक्ष्मी ने कहा, ‘मैं सीतांश से आविर्भूत उनकी नित्यसखी हूँ। राम हम दोनों के पति हैं।’ कौशिकी ने कहा, ‘मैं कुशिक राजा की पुत्री और सीता की सखी हूँ।’ इस प्रकार सबने अपने को सीता की नित्य सखी बताया और उसी सम्बन्ध से जनक को अपना पिता स्वीकार किया। (भ० रा०, पश्चिमखण्ड, अध्याय ६ से १६ तक)
Ref: भुशुण्डि रामायण (श्रीमद आदि रामायण): अनुवादक -विद्याभास्कर आचार्य पंडित जटाशंकर दीक्षित “शास्त्री”, भुवन वाणी ट्रस्ट, मौसम बाग (सीतापुर रोड) लखनऊ -२२६०२०, के लिए विनय कुमार अवस्थी द्वारा प्रकाशित।
आध्यात्म रामायण

आध्यात्म रामायण – नाम क्यों ?
आध्यात्म का अर्थ :
भगवत गीता में भगवान् कहते हैं “आत्मा के स्वाभाव को जानना ही अध्यात्म है“(आत्मा के अध्ययन की विद्या), अर्थात हम भौतिक चिंतन त्याग कर अपने चिंतन को अन्तर्मुख करें, आत्मा का चिंतन करें… और चूँकि श्री राम ही सभी की आत्मा हैं, परमात्मा हैं तो संसार का चिंतन त्याग कर , (स्वयं) की आत्मा का चिंतन या भगवान का चिंतन करना ही अध्यात्म है ।
अध्यात्म रामायण ब्रह्माण्ड पुराण के उत्तर खंड के अंतर्गत माना जाता है, इसलिए रचियता भगवान् वेद व्यास ही हैं, अध्यात्म रामायण भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई हैं। इसमें लगभग ४२०० श्लोक (गीता प्रेस से मुद्रित) हैं।
आध्यात्म रामायण में पद-पद पर सभी रामायण कथा और राम चरित प्रसंगों में भक्ति, ज्ञान, उपासना, नीति और सदाचार सम्बन्धी आध्यात्मिक उपदेश दिए गए हैं! अधिकर कथा प्रसंगो को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझाया गया हैं, इसलिए यह अध्यात्म रामायण कहलाता हैं।
आध्यात्म रामायण– की कुछ प्रमुख विशेषतायें
श्रीराम ह्रदय (बाल कांड प्रथम सर्ग)
भगवान श्री राम ने अत्यंत गुप्त, हृदयहारी, परम पवित्र और पापनाशक श्री राम ह्रदय हनुमान जी को सुनाया , जिसमे भगवान् राम ने आत्मा, अनात्मा और परमात्मा का तत्व बताया हैं, यह अत्यंत कठिन भाषा में हैं , और सभी भगवत्तत्व ज्ञान का सार हैं । भगवान् राम इसमें यह रहस्योद्घाटन कर रहे हैं की उनकी अनन्य भक्ति और स्वरूप को कैसे प्राप्त किया जा सकता हैं ।
राम गीता (उत्तर कांड पंचम सर्ग)
लक्षमण जी ने राजा राम से एक बार विनती की, कि आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मै सुगमता से अज्ञान रूपी अपार समुद्र से पार हो जाऊं। तब श्रीराम ने लक्षमण जी को प्रसन्नचित्त से अज्ञानान्धकार नाश हेतु उपदेश किया जिसको राम गीता कहा जाता हैं। भगवान् राम ने इसमें आत्म ज्ञान को ही विशुद्ध ज्ञान बताया हैं, समस्त इन्द्रियों को विषयों से हटा कर, मनुष्य को आत्म अनुसंधान के लिए प्रेरित किया हैं।
छाया सीता की रचना (अरण्य कांड सप्तम सर्ग)
राम जी ने रावण का सारा षड्यंत्र जान कर सीता जी से कहा। हे सीते रावण तुम्हारे पास भिक्षुक का रूप धरकर आएगा, अतः तुम अपनी ही आकृति वाली अपनी छाया को कुटी में छोड़कर अग्नि में प्रवेश कर जाओ और मेरी आज्ञा से वहां अदृश्य रूप से एक वर्ष तक रहो । तदनंतर रावण के मारे जाने पर तुम मुझे पूर्ववत पा लोगी। सीता जी ने वैसा ही किया, मायामयी सीता को कुटी में छोड़कर स्वयं अग्नि में अंतर्ध्यान हो गयीं । तो रावण ने छाया सीता जी या मायामयी सीता जी का हरण किया और वही अशोक वाटिका में रहीं । यह प्रसंग वैसे तो वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों में हैं थोड़ा सा अंतर हैं कथा में ।
रावण राम के हाथ ही मृत्यु को प्राप्त होना चाहता था।
शूर्पणखा ने जब रावण को खर दूषण कि मृत्यु सुनाई तो उसको चिंता के कारण नींद नहीं आयी। वह सोचने लगा कि मेरे ही समान बल वाले खर दूषण को राम ने अकेले सेना सहित कैसे मार डाला । रावण को पता था राम मनुष्य नहीं साक्षात् परमात्मा ही हैं और मुझे मरने हेतु ही उन्होंने मनुष्य रूप में जन्म लिया हैं । अगर मै उनके हाथ मारा गया तो बैकुंठ का राज्य भोगूँगा …। उस समय ही भगवान् राम को परमात्मा हरी जानकर रावण ने निश्चय किया, मै विरोध बुद्धि से ही भगवान् के पास जाऊंगा क्योंकि भक्ति के द्वारा भगवान् शीघ्र प्रसन्न नहीं हो सकते । (अरण्य कांड पंचम सर्ग श्लोक ५८-६१)
अन्य रामायण में यह इतना स्पष्ट नहीं हैं, कि रावण ने, राम जी के हाथों मृत्यु पाने हेतु समझ-भूझ कर राम जी से बैर किया अध्यात्म रामायण के अरण्य कांड के सप्तम सर्ग में श्लोक संख्या ६५ में तो यहाँ तक लिखा हैं कि रावण ने सीता जी को अशोक वन रखा और रक्षासिओं से घेरे रखकर मातृबुद्धी से उनकी रक्षा करने लगा।
रावण को हनुमान जी के लंका आने और अशोक वाटिका में होने के बारे में पता हो गया था ।
अध्यात्म रामायण सुन्दर-कांड के द्वतीय सर्ग में श्लोक संख्या १५- १९ में स्पष्ट लिखा हैं कि रावण को हमेशा यही चिंता रहती थी कि श्री रामचंद्रजी के हाथों जल्दी से जल्दी मेरा मरण हो, न जाने क्या कारण हैं कि अभी तक सीता जी को लेने नहीं आये?, इस प्रकार निरन्तर भगवान् राम का ही हृदय में स्मरण रहने से राक्षसराज रावण ने उसी दिन शेषरात्रि में स्वप्न देखा कि राम जी का संदेश लेकर आया हुआ कोई स्वेच्छा रूपधारी वानर सूक्ष्म शरीर से वृक्ष कि शाखा पैर बैठा हुआ देख रहा हैं ।
इस अद्भुत स्वप्न को देखकर उसने मन में सोचा – कदाचित यह स्वप्न ठीक ही हो ; अतः अब अशोकवन चल कर मुझे एक काम करना चाहिए – मै जानकी जी को अपने वाग्बाणों से भेदकर अत्यंत दुखी करूँ, जिससे वह वानर यह सब देखकर रामचन्द्रजी को सुनाये ।
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References:
भुशुण्डि रामायण (श्रीमद आदि रामायण): अनुवादक -विद्याभास्कर आचार्य पंडित जटाशंकर दीक्षित “शास्त्री”, भुवन वाणी ट्रस्ट, मौसम बाग (सीतापुर रोड) लखनऊ -२२६०२०, के लिए विनय कुमार अवस्थी द्वारा प्रकाशित।
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