
जिस तरह से सनातन धर्म का न आदि है न अंत उसी तरह से सनातन धर्म ग्रन्थ भी अनंत हैं , वेद ही सनातन धर्म के मूल हैं सभी शास्त्र वेदों से ही उत्पन्न हैं । वैदिक साहित्य इतना विशाल है की एक जन्म में साधारण मनुष्य के लिए ८-१० % भी पढ़ना / समझना संभव नहीं है ।
इस लेख में सनातन धर्म शास्त्रों का सिर्फ वर्गीकरण किया है और बहुत ही संक्षेप में हर ग्रन्थ के विषय पर बताया है ।
भविष्य में शास्त्रों से उपयोगी विषयों पर विस्तृत लेख पब्लिश करेंगे ।
धर्मशास्त्र का प्रतिपाद्य–विषय (मुख्य विचार या सन्देश)
श्रुति, स्मृति, पुराण और इतिहास (रामायण और महाभारत) आदि ग्रंथों में मनुष्य को जीवन जीने का मार्गदर्शन प्रतिपादित है । मनुष्य को जन्म से मृत्यु तक क्या करना चाहिए (प्रति-दिन, प्रति-क्षण), सुबह जागने से लेकर सोने तक किस तरह से दिनचर्या व्यतीत करनी चाहिए , जो करना चाहिए उससे भी ज्यादा महत्व पूर्ण है की क्या नहीं करना चाहिए (निषेध कर्म) ।
सनातन धर्म शास्त्र मनुष्य की दिनचर्या जीवनचर्या सामान्य धर्म, विशेष धर्म (वर्णाश्रम धर्म ), संस्कार, आचार (सदाचार शौचाचार) -विचार, यम-नियम, दान, श्राद्ध, तर्पण, पंच महायज्ञ, पूजन अनुष्ठान, नित्य कर्म, वृत- उपवास, आदि अनेकों महत्वपूर्ण विषयों पर सही मार्गदर्शन देते हैं ।
श्रुति स्मृति
• श्रुति वेद को ही कहते हैं और सनातन धर्म मुख्य शास्त्र मूलतः श्रुति ही हैं
• श्रुति अपौरुषेय हैं (किसी मनुष्य द्वारा नहीं कहे गए स्वयं भगवान् की वाणी है)
• स्मृति श्रुतिमूला हैं अर्थात वेदों से ही उत्पन्न हैं लेकिन सभी स्मृतियाँ अपौरुषेय नहीं है , ये ऋषियों के द्वारा प्रतिपादित हैं , कही गयी हैं ।
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः । (मनुस्मृति २ । १०)
अर्थात् श्रुतिको वेद तथा स्मृतिको धर्मशास्त्र जानना चाहिये। सनातनधर्म में कुल चौदह विद्यास्थान स्वीकार किये गये हैं, जिनमें धर्मशास्त्र भी परिगणित है, यथा –
पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।
वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति १।३)
अर्थात पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, वेदांग (वेद के छह अंग शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, ज्योतिष और छंद ) और वेद (वेदचतुष्टयी ) – ये सभी मिलकर विद्याओं के चौदह प्रमुख स्थान हैं
आइये हम इस अत्यंत विशाल और गूढ़ वैदिक-साहित्य को सरलता से समझने का प्रयत्न करते हैं
बहुत परिश्रम के बाद वैदिक साहित्य को नीचे दिए flowchart में समेटने का प्रयत्न किया है, लेकिन फिर भी इसमें त्रुटियां हो सकती हैं
(अगर ये वर्गीकरण आपको कहीं उपयोग में लाना हैं या शेयर करना है तो कृपया knowsanatan2025 .blogspot के reference के साथ ही करें)
%20WM.jpg)
श्रुति ( वेद)
द्वापर युग के समाप्ति के समय भगवान् नारायण अवतार श्री कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास जी ने, वेद जो एक ही था उसको कलयुग के मनुष्यों की अल्पायु शक्तिहीनता और स्मरण शक्ति को ध्यान में रखते हुए, चार भागों में विभक्त किया (मूलतः वेद एक ही है ) ।
वेद अनादि हैं उनका निर्माता नहीं (अपौरुषेय). हर बार सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ब्रह्मा जी के ह्रदय में वेद प्रकट करते हैं और वैदिक मन्त्रों का ज्ञान एक दूसरे से सुनकर होता है इसलिए वेदों को श्रुति कहा जाता है । श्रुति के भी दो विभाग हैं १) वैदिक २) तांत्रिक (३ मुख्य तंत्र महानिर्वाण तंत्र, नारदपांचरात्र तंत्र , कुलार्णव तंत्र ) ।
वेद के दो विभाग हैं (प्रत्येक वेद और प्रत्येक वेद की प्रत्येक शाखा के ये दो विभाग होते हैं)
१) मंत्र विभाग (जिन्हे संहिता भी कहते हैं )
२) ब्राह्मण विभाग (इनमे आरण्यक और उपनिषद का भी समावेश है ) :
ब्राह्मण भाग में यज्ञ अनुष्ठान मंत्रो का प्रयोग और विधि निषेध पध्दति आदि का निरूपण किया है ।
13 ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जिनमे ऋग्वेद के २ यजुर्वेद के २ सामवेद के ८ और अथर्ववेद के १ .
मुख्य ब्राह्मण ग्रन्थ १) ऐतरेय २) तैत्तिरीय ३) तलवकार ४) शतपथ ५) ताण्ड्य
चार वेदों में मुख्य विषय
यजमान जिन वैदिक विद्वानों से यज्ञ करवाते हैं उन्हें ऋत्विक कहते हैं श्रौत यज्ञ में ऋत्विजों के चार गण होते हैं उन चारों के कार्य आवश्यक हैं यज्ञ सफलता के लिए वो चार गण हैं । १. होतृगण २. अध्वर्युगण ३. उद्गातृगण ४. ब्रह्मगण
वेदों का विभाजन इन्ही चार गणो के उपयोगी मन्त्रों के अनुसार किया गया है, अर्थात ऋग्वेद में होत्रवर्ग के लिए उपयोगी मन्त्रों का संकलन है इसमें पद्दबद्ध मन्त्रों की अधिकता है
- ऋग्वेद – होत्रकर्म के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओंका संकलन
-
यजुर्वेद – यज्ञके आध्वर्यव कर्म के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओं का संकलन, इसमें गद्दात्मक मन्त्रों की अधिकता है
- कृष्ण यजुर्वेद
- शुक्ल यजुर्वेद
- सामवेद – औद्गात्र कर्मके उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओंका संकलन
- अथर्ववेद – यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है, यज्ञ की देखरेख, नियम पालन निर्देश, त्रुटि या भूल सुधार आदि महत्वपूर्ण मन्त्र एवं विधि अथर्ववेद में है
शाखाएं क्या हैं ?
ऋषियों ने अपने शिष्यों अपनी सुविधा अनुसार मन्त्रों को पढ़ाया, किसी ने एक छंद के सब मन्त्र एकसाथ पढ़ाये , किसी ने एक देवता के सभी मन्त्र एक साथ पढ़ाये, किन्हीं ने मन्त्रों को उनके विषय और उपयोग के अनुसार शिक्षा दी इस प्रकार एक वेद की अनेकों शाखाएं हुईं ।
जो वर्गीकरण चित्र में शाखा संख्या ११३१ लिखी है इनमें बहुत कम उपलब्ध हैं उदाहरणतः सामवेद की हजार शाखाओं में केवल ३ ही प्राप्त हैं कौथुमी, जैमिनिया, राणायनिया
वेद त्रयी
विश्व में शब्द प्रयोग की तीन शैलियां हैं पद्द (कविता), गद्द और गान रूप. पद्द में अक्षर संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम रहता है, अतः निश्चित अक्षर संख्या पाद एवं विराम वाले वेद मन्त्रों की संज्ञा “ऋक” है ।
जिन मन्त्रों में छंद के नियमानुसार अक्षर संख्या पाद एवं विराम ऋषि-दॄष्ट नहीं हैं , वे गद्दात्मक मन्त्र “यजुः” कहलाते हैं । और जितने मन्त्र गानात्मक हैं , वे मन्त्र “साम” कहलाते हैं ।
इन तीन प्रकार की शब्द प्रकाशन शैली के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिए “त्रयी” शब्द का प्रयोग भी किया जाता है. “त्रयी” शब्द से ये अर्थ नहीं निकलना चाहिए की वेद की संख्या तीन ही हैं, “त्रयी” शब्द यहाँ तीन तरह के शब्द प्रयोग की शैली के आधार पर है ।
वेदी की प्रत्येक शाखा में शब्द राशि ४ भागों में विभक्त है
- मन्त्र भाग – मूल वेद-मंत्र जिनको संहिता कहते हैं चार है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद, इनके ही पाठ-भेद से ११३३ शाखाएं निकलतीं हैं ।
- ब्राह्मण – जिसमे यज्ञ पूजन अनुष्ठान पद्दति विधि निषेध एवं फल प्राप्ति आदि का निरूपण है ।
- आरण्यक – ये ग्रन्थ मनुष्य को अध्यात्म की और झुका कर सांसारिक बंधनों से ऊपर उठाते हैं , संसार त्याग (नगर के कोलाहल से दूर) अरण्य (वन) में इनका स्वाध्याय अध्ययन उचित है इसी कारन इन्हे आरण्यक संज्ञा दी है ।
- उपनिषद – इनका मुख्य विषय ब्रह्म विद्या है, उपनिषदों में वेदों में बताये आध्यात्मिक विचारों को समझाया गया है, इन्ही को वेदांत कहते हैं । उपनिषदों की संख्या बहुत है आज के समय में २७४ प्राप्त हैं उनमे ११ मुख्य उपनिषद इस प्रकार हैं १. ईश २. केन ३. कठ ४. प्रश्न ५. मुण्डक, ६. माण्डूक्य ७. तैत्तरीय ८. ऐतरेय, ९.श्वेताश्वतर १०. छान्दोग्य, ११. बृहदारण्य ।
उपवेद:
चारों वेदों के उपवेद होते हैं ऋग्वेद का अर्थवेद (स्थापत्य वेद ), यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद, अथर्ववेद का आयुर्वेद
- स्थापत्य वेद: अर्थशास्त्र विषय का बहुत महत्वपूर्ण वेद है, इससे सम्बंधित ग्रन्थ हैं – कौटिल्य का अर्थशास्त्र, सोमदेवभट्ट का नीतिवाक्यामृत सूत्र, चाणक्य सूत्र, कामन्दक, शुक्रनीति
- धनुर्वेद : धनुर्वेद में अस्त्र शस्त्रों के निर्माण तथा प्रयोग का विज्ञानं है, इस विषय के वैशम्पायन नीति प्रकाशिका, वृद्ध शार्ङ्गधर , युक्ति कल्पतरु, समरांगण सूत्रधार आदि ग्रन्थ हैं
- गंधर्ववेद : इसमें नृत्य गायन आदि विषय पर ज्ञान है, राग-रागिनी, ताल, वाद्य, यंत्र और नतृती के भेदोपभेद का वर्णन है सम्बंधित मुख्य ग्रन्थ – भरतमुनि का भरतनाट्य शास्त्र, दत्तिलमुनि का दत्तिलम, शार्ङ्गंदेव का संगीतरत्नाकर, दामोदर कृत संगीतदर्पण.
- आयुर्वेद : शरीर रचना, रोग के कारण, लक्षण, औषधि, गुण विधान और चिकित्सा आयुर्वेद का विषय है, प्रमुख ग्रन्थ – अश्विनीकुमार संहिता, ब्रह्मसंहिता, भेलसंहिता, आघ्रीद्रसूत्रराज, सुश्रुत संहिता, धातुवाद, धन्वन्तरिसूत्र, मानसूत्र, दाल्भ्य सूत्र, जाबालिसूत्र, इन्द्रसूत्र, शब्दकुतूहल, चरक संहिता, अष्टांगहृदय और देवलसूत्र
स्मृति
मनुष्य को धर्म का ज्ञान हो, धर्मानुकूल आचरण का महत्त्व पता हो, पाप-पुण्य, नीति-अनीति को पहचानने का विवेक हो , माता पिता, गुरु देव अतिथि के प्रति अपने कर्त्तव्य का बोध हो यही धर्म शास्त्र का उद्देश्य है
विद्द्वानों ने कहा है “धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः” इस शास्त्र वचन से यह सिद्ध होता है की स्मृति ग्रन्थ ही हमारे धर्म शास्त्र हैं, और स्मृतियों के मूल में वेद ही हैं तो श्रुति स्मृति दोनों ही धर्मशास्त्र हुए
चूँकि कलयुग के मनुष्य के लिए वेदों का समझना सामर्थ्य के बाहर था इसलिए करुणामय ऋषि-मुनियों ने, भगवान् वेद व्यास ने, वेदों को सुलभ करने हेतु अथाह स्मृतियाँ, पुराण, इतिहास, वेदांत, दर्शन-शास्त्र, उपनिषद, आदि की रचना की
इतिहास
इतिहास ग्रन्थ (रामायण और महाभारत ) और पुराणों में ही वेद के अर्थ का पूरा विवेचन हुआ है। इतिहास-पुराण का विचार किये बिना वेदों का का ठीक-ठीक अर्थ जाना नहीं जा सकता। इसलिये इतिहास-पुराण को वेद का उपांग भी कहा जाता है। कलयुग में मनुष्य की कम मेधा शक्ति, स्मरण शक्ति और आयु का विचार कर के ही भगवान् वेदव्यास हर द्वापर युग के अंत में वेदों का चार भागों में विभाजन करते हैं , उनको सरलता से समझाने हेतु पुराणों और महाभारत की रचना करते हैं.
महर्षि वाल्मीकि की वाल्मीकीय रामायण और भगवान् वेदव्यास का महाभारत – ये दो मुख्य इतिहास ग्रन्थ हैं। हरिवंशपुराण महाभारतका परिशिष्ट होनेसे इतिहास ही माना जाता है। इनके अतिरिक्त अध्यात्म-रामायण, योगवासिष्ठ आदि इतिहास के और भी बहुत ग्रन्थ हैं ।
पुराण
पुराण चार प्रकारके हैं- (१) महापुराण, (२) पुराण, (३) अतिपुराण, (४) उपपुराण, इनमेंसे प्रत्येककी
संख्या अठारह बतायी जाती है। सर्वसाधारणमें महापुराणोंको ही पुराणके नामसे जाना जाता है। इन महापुराणोंके नाम निम्न हैं –
१. ब्रह्मपुराण, २. पद्मपुराण, ३. विष्णुपुराण, ४. शिव-पुराण – वायुपुराण, ५. श्रीमद्भागवत, ६. नारदीयपुराण, ७. मार्कण्डेयपुराण, ८. अग्निपुराण, ९. भविष्यपुराण, १०. ब्रह्मवैवर्तपुराण, ११. लिङ्गपुराण, १२. वराहपुराण, १३. स्कन्दपुराण, १४. वामनपुराण, १५. कूर्मपुराण, १६. मत्स्यपुराण, १७. गरुडपुराण और १८. ब्रह्माण्ड-पुराण। पुराणों में वेदोंके सभी पूर्वोक्त विषय विस्तारसे प्रतिपादित हैं ।
श्रीमद भागवत पुराण सर्वोपरि माना गया है क्योंकि श्रीमद भागवत महापुराण में एक विशेषता है जो किसी भी और पुराण में नहीं. श्रीमद भागवत पुराण में श्रोता कलियुग के त्रस्त संसारी जीव हैं ।
आगम या तंत्र ग्रन्थ
वेदों को निगम भी कहा जाता है और तंत्र शास्त्र को आगम । आगम शास्त्रों का विषय है उपासना, आगम साहित्य समुद्र के सामान अथाह है और रहस्यपूर्ण भी है । बहुत ही संक्षेप में आवश्यक जानकारी इस लेख में दी जा रही है ।
तंत्रों (आगम) के दो भेद माने जाते हैं वैदिक और अवैदिक, कुल्लूक भट्ट (1150-1300 ई.) मनुस्मृति के सुविख्यात टीकाकार ने कहा है –
“श्रुतिश्च द्विविधा – वैदिको तांत्रिकी च“
अर्थात श्रुति (वेद) के भी दो भेद होते हैं – एक वैदिकी श्रुति है दूसरी तांत्रिक श्रुति होती है
पान्चरात्र, वैखानस, पशुपति , शैव तंत्र आदि वेदों के अनुकूल माने जाते हैं , बहुत से ऐसे तंत्र भी हैं जो अवैदिक माने जाते हैं ।
देवता का स्वरुप, गुण, कर्म, उनके मन्त्र ध्यान, पूजा विधि का विवेचन आगम ग्रंथों में होता है (वैष्णव आगम), भगवान् शंकर के मुख से २८ तंत्र प्रकट हुए इनके उपतंत्रों को मिलकर २०८ के ऊपर संख्या होती है (शैवागम) , इनमे भी ६४ मुख्य माने गए हैं जो भी सब उपलब्ध नहीं हैं, शाक्तागम में भी ६४ मुख्य ग्रन्थ माने जाते हैं, सब प्राप्त नहीं हैं ।
वेदांग
१. शिक्षा – वेद मन्त्रों का उच्चारण का विज्ञान जिनका उपयोग वैदिक वर्णों, स्वरों और मात्राओं के बोध करानेमें होता है
२. कल्प—जो आश्वलायन, आपस्तम्ब, बौधायन और कात्यायन आदि ऋषियोंके बनाये श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र हैं, जिनमें यागके प्रयोग, मन्त्रोंके विनियोगकी विधि है।
३. व्याकरण—जो प्रकृति और प्रत्यय आदिके उपदेश से पद के स्वरूप और उसके अर्थका निश्चय करनेके लिये उपयोगी हैं।
४. निरुक्त—जो पदविभाग, मन्त्र का अर्थ और देवता के निरूपण द्वारा एक-एक पद के सम्भावित और अवयवार्थका निश्चय करता है।
५. छन्द–जो लौकिक और वैदिक पादोंकी अक्षर-संख्याको नियमित करने, पाद, यति और विराम आदि की व्यवस्था करनेमें उपयोगी है।
६. ज्योतिष—जो यज्ञादि-अनुष्ठानके काल विशेषकी व्यवस्था करता है।
ये वेदोंके अङ्ग कहलाते हैं। अर्थात् इनके द्वारा वेदमन्त्रोंके अर्थोंका यथार्थ बोध प्राप्त होता है।
दर्शन
वेदों में बताये गए ज्ञान की मीमांसा (गहन अध्ययन) दर्शन शात्रों में सूत्र रूप में की गयी है दर्शन शब्द का अर्थ है “द्र्श्यते अनेन इति दर्शनम” जिसके द्वारा देखा जाये, जाना जाये अर्थात जिसके द्वारा वस्तु का तात्विक रूप जाना जाये ।
हर जीव चाहे वह पशु हो कीट पतंगा हो, मनुष्यों में राजा हो साधारण हो, भिक्छुक हो , सभी जीव दुःख, संकट और कष्ट से मुक्ति चाहते हैं, और सिर्फ उसी में प्रयत्न रत रहते हैं, लेकिन उनको दुखों से छुटकारा नहीं मिलता ।
जिन भोगों वस्तुओं को सुख की इच्छा से मनुष्य प्रयत्न करता है प्राप्त होने पर वे भी सिर्फ दुःख ही देते हैं , इसलिए तत्वदर्शी के लिए ये चार प्रश्न उपस्थित होते हैं और इन्हीं प्रश्नों के उत्तर दर्शन शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है ।
छह दर्शन के चार प्रतिपाद्य विषय :
हेय – दुःख का वास्तविक स्वरुप क्या है जो हेय अथवा त्याज्य है
हेय हेतु – दुःख कहाँ से उत्पन्न होता है इसका वास्तविक कारण क्या है
हान – दुःख का नितांत अभाव क्या है अर्थात हान किस अवस्था का नाम है
हानोपाय – अर्थात दुःख निवृति साधन क्या है
इन चारों रहस्यपूर्ण प्रश्नोंको समझानेके लिये ‘दर्शनशास्त्रों’ में इन तीन तत्त्वों (जीव, प्रकृति, परमात्मा) का छोटे-छोटे और सरल सूत्रोंमें युक्तियुक्त वर्णन किया गया है । इन दर्शनशास्त्रों में ‘षड्दर्शन’–छः दर्शन मुख्य हैं ।
१. मीमांसा २. वेदान्त, ३. न्याय, ४. वैशेषिक, ५. सांख्य, ६. योग। ये षडदर्शन वेदोंके उपाङ्ग कहलाते हैं ।
दर्शन शास्त्र में प्रत्येक दर्शन में सहस्त्रों ग्रन्थ है, उनमे मुख्य ग्रंथों के नाम लिखना भी इस लेख की सीमा से बहार हैं. ये विषय बहुत गंभीर और रोचक भी है इसलिए दर्शन शास्त्र पर कई लेख भविष्य में इस ब्लॉग पर पब्लिश करेंगे
धर्म-शास्त्र
वेदों के गूढ़ आशय को समझने के लिए करुणामय ऋषियों ने इतिहास, पुराण, निरुक्त एवं धर्मशास्त्रों के माध्यम से श्रुतियों (वेद) के भाव को सरल शब्दों में व्यक्त करने और सामान्य मनुष्यों तक पहुंचाने का बहुत विलक्षण कार्य किया हैं ।
धर्मशास्त्रों में मुख्य रूप से स्मृतियों की ही गणना हैं, अतः स्मृतियों और पुराणों में कर्तव्याकर्तव्य के रूप में विधि निषेधात्मक जो वचन मिलते हैं, वे ही सर्वमान्य धर्मशास्त्र हैं ।
सबसे प्रमुख स्मृतियों में मनुस्मृति, याग्वल्क्यस्मृति, वशिष्ठस्मृति और कपिलस्मृति हैं स्मृतियाँ वेदार्थ का ही प्रतिपादन करती हैं धर्माचरण और सदाचार ही इनका मुख्य उद्देश्य है धर्मशात्र में स्मृतियों के साथ वेद-धारा के सूत्र-साहित्य का भी विशेष महत्त्व है , सूत्र साहित्य में श्रौतसूत्र, गृहसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र आदि ग्रन्थ मुख्य हैं ।
धर्म सूत्रों में गौतम, आपस्तम्ब, वशिष्ठ, बौधायन, हिरण्यकेशि, हारीत, वैखानस और शंख आदि ऋषियों द्वारा लिखित धर्म सूत्र विशेष रूप से प्रसिद्ध एवं मान्य हैं ।
